(विभिन्न ऋतुओं में आचरण योग्य आहार-विहार)
हमारे शरीर पर खान-पान के अलावा ऋतुओं और जलवात का भी प्रभाव पड़ता है। एक ऋतु में कोई एक दोष बढ़ता है, तो कोई शान्त होता है और दूसरी ऋतु में कोई दूसरा दोष बढ़ता तथा अन्य शान्त होता है। इस प्रकार मनुष्य के स्वास्थ्य के साथ ऋतुओं का गहरा सम्बन्ध है। अतः आयुर्वेद में प्रत्येक ऋतु में दोषों में होने वाली वृद्धि, प्रकोप या शान्ति के अनुसार सब ऋतुओं के लिए अलग-अलग प्रकार के खान-पान और रहन-सहन (आहार-विहार) का उल्लेख किया गया है। इसके अनुसार आहार-विहार अपनाने से स्वास्थ्य की रक्षा होती है तथा मनुष्य रोगों से बचा रहता है। भौगोलिक स्थिति के अनुसार एक वर्ष में मुख्य रूप से तीन ऋतुएँ (मौसम) आती हैं- गर्मी, शीतकाल और वर्षा। इन तीनों में शरीर के अन्दर अनेक प्रकार के परिवर्तन आते हैं। ये तीन मौसम छः ऋतुओं में बाँटे गये हैं। ये ऋतुएँ हैं- वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद्, हेमन्त और शिशिर। प्रत्येक ऋतु दो-दो मास की होती है। चैत्र-वैशाख में बसन्त, ज्येष्ठ-आषाढ़ में ग्रीष्म, श्रावण-भाद्रपद में वर्षा, आश्विन-कार्तिक में शरद्, मार्गशीर्ष-पौष में हेमन्त तथा माघ-फाल्गुन में शिशिर ऋतु होती है। इन ऋतुओं का आधार सूर्य की गति है, जिसे अयन कहा जाता है। अयन दो प्रकार के हैं- उत्तरायण व दक्षिणायन।
विभिन्न ऋतुओं में दोषों की प्राकृत / स्वाभाविक अवस्था | |||
दोष | संचय | प्रकोपप्रशमन | प्रशमन |
वात | ग्रीष्म | वर्षा | शरद |
पित्त | वर्षा | शरद | हेमंत |
कफ | शिशिर | शिशिर | ग्रीष्म |
- उत्तरायण शब्द उत्तर एवं अयन, इन दो पदों से बना है। इसका भाव है- सूर्य की उत्तर की ओर गति। चैत्र से भाद्रपद उत्तरायण में आते हैं। यह आदान काल भी कहलाता है, क्योंकि इस समय प्रचण्ड सूर्य रस (जलीय तत्त्व) का आदान (ग्रहण) करता है। सूर्य की किरणें प्रखर और हवाएँ तीव्र, गर्म और रूक्ष होती हैं, ये पृथ्वी के जलीय अंश को सोख लेती हैं। इसका प्रभाव सभी औषधियों के साथ-साथ मनुष्य के शरीर पर भी पड़ता है। इससे शारीरिक शक्ति में कमी होने लगती है और व्यक्ति दुर्बलता का अनुभव करता है। इस अवधि में शिशिर, बसन्त और ग्रीष्म ऋतुएँ आती हैं।
- दक्षिणायन शब्द दक्षिण+अयन, इन दो पदों से बना है। अयन का अर्थ गति है। इसमें सूर्य की गति दक्षिण की ओर होती है। इस समय सूर्य की किरणों के मन्द व सौम्य होने से वातावरण में रस (जलीय तत्त्व) की वृद्धि होती है, इसे विसर्ग काल कहते हैं। क्योंकि इसमें सौम्य अवस्था वाले सूर्य व चद्र द्वारा वातावरण में रस का विसर्जन किया जाता है। इसमें हवाएँ आदान काल की तरह शुष्क, गर्म और रूक्ष नहीं होतीं। वातावरण में चंद्रमा के सौम्य गुणों की प्रधानता होती है तथा ताप कम हो जाता है। हवाओं, बादलों और वर्षा में ठण्डक आ जाती है। सब जगह चंद्रमा की शीतलता रहती है। वातावरण की शीतलता के कारण औषधियों और खाद्य पदार्थों में स्निग्धता आ जाती है। इससे मनुष्यों एवं अन्य प्राणियों की शारीरिक शक्ति में वृद्धि होती है।
आदान काल एवं विसर्ग काल में भेद | ||
प्राकृतिक भाव | आदान काल | विसर्ग काल |
सूर्य | उत्तरायण | दक्षिणायन |
वायु | तीव्र रूक्ष | अरूक्ष |
स्नेहांश | शोषण एवं ह्रास | वृद्धि एवं पोषण |
स्वभाव | आग्नेय | सौम्य |
ऋतुएँ | शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म | वर्षा, शरद, हेमन्त |
रस | तिक्त, कषाय, कटु रस की वृद्धि | अम्ल, लवण, मधुर रस की वृद्धि |
दक्षिण भारत में वर्षा अधिक होती है। अतः वर्षा-ऋतु के दो भाग किये गये हैं- पहले भाग को प्रावृट् (अषाढ़-श्रावण) और दूसरे भाग को वर्षा-ऋतु (भाद्रपद-आश्विन) कहा गया है। जबकि उत्तर भारत में वर्षा कम होती है तथा ठण्ड अधिक पड़ती है। अतः यहाँ प्रावृट् ऋतु न मान कर शीतकाल की दो ऋतुएँ- हेमन्त और शिशिर मानी जाती हैं।*
भारतीय जलवायु के अनुसार आयुर्वेद में वर्णित ऋतुएं | |||
काल | ऋतु | संस्कृत मास | अंग्रेजी माह |
आदान काल (उत्तरायण) | शिशिरबसंतग्रीष्म | माघ-फाल्गुनचैत्र-वैशाखज्येष्ठ-असाढ़ | मध्य जनवरी-मध्य मार्चमध्य मार्च-मध्य मईमध्य मई-मध्य जुलाई |
विसर्ग काल(दक्षिणायन) | वर्षाशरदहेमन्त | स्रावण-भाद्रपदअश्विनी-कार्तिकमार्गशिर-पौष | मध्य जुलाई-मध्य सितम्बरमध्य सितम्बर-मध्य नवम्बरमध्य नवम्बर-मध्य जनवरी |
विसर्ग और आदान काल के प्रभावों के कारण आदान काल के अन्त और विसर्ग काल के प्रारम्भ में दुर्बलता अधिक रहती है। इन दोनों कालों के बीच के समय में मनुष्यों में बल भी मध्य प्रकार का अर्थात् न बहुत अधिक और न बहुत न्यून, अर्थात् मध्यम स्थिति में रहता है। विसर्ग काल के अन्त एवं आदान काल के आरम्भ में शरीर में बल की प्राप्ति अधिक होती है। समय की इन सभी विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए ही आयुर्वेद ने सभी ऋतुओं में अलग-अलग आहार-विहार का वर्णन किया है। परन्तु वैश्विक परिप्रेक्ष्य के अनुसार कम से कम 3 या 4 ऋतुं तो होती है, उनके अनुसार ही हम यहां आहारभेद व पथ्य-अपथ्य का वर्णन कर रहे हैं।
ऋतुओं के अनुसार प्राकृतिक स्थिति | ||||||||||
ऋतुएँ | भारतीय मास | अंग्रेजी मास | सूर्यबल | चन्द्रबल | भूमण्डल का स्वभाव | द्रव्यों में रस की अभिवृद्धि | प्राणियों का बल | दोष | ||
सञ्चय | प्रकोप | शमन | ||||||||
शिशिर(Late Winter) | माघ, फाल्गुन | जनवरी-फरवरी फरवरी-मार्च | पूर्ण↑ | क्षीण↓ | रूक्ष | तिक्त | श्रेष्ठ बल | कफ | ||
बसन्त (Spring) | चैत्र, वैशाख | मार्च-अप्रैल अप्रैल-मई | पूर्णतर↑ ↑ | क्षीणतर↓ ↓ | रूक्षतर | कषाय | मध्यम बल | कफ | ||
ग्रीष्म(Summer) | ज्येष्ठ, आषाढ़ | मई-जूनजून-जुलाई | पूर्णतम↑ ↑ ↑ | क्षीणतम↓ ↓ ↓ | रूक्षतम | कटु | अल्प बल | वात | कफ | |
वर्षा(Rains) | श्रावण, भाद्रपद | जुलाई-अगस्त अगस्त-सितम्बर | क्षीण↓ | पूर्ण↑ | स्निग्ध | अम्ल | अल्प बल | पित्त | वात | |
शरद्(Autumn) | आश्विन, कार्तिक | सितम्बर-अक्टूबर अक्टूबर-नवम्बर | क्षीणतर↓ ↓ | पूर्णतर↑ ↑ | स्निग्धतर | लवण | मध्यम बल | पित्त | वात | |
हेमन्त(Early Winter) | मार्गशीर्ष, पौष | नवम्बर-दिसम्बर दिसम्बर-जनवरी | क्षीणतम↓ ↓ ↓ | पूर्णतम↑ ↑ ↑ | स्निग्धतम | मधुर | श्रेष्ठ बल | पित्त |
ऋतु | माह | जलवायु की अवस्था |
वसंत | मार्च-अप्रैल-मई | बड़े दिन, उष्ण जलवायु, कदाचित् वर्षा और तेज हवा का बहाव। |
ग्रीष्म | जून- जुलाई-अगस्त | दिन बड़े, उष्ण जलवायु। |
शरद | सितम्बर-अक्टूबर-नवम्बर | दिन छोटे, शीत जलवायु एवं पतझड़। |
शिशिर | दिसम्बर-जनवरी-फरवरी | दिन छोटे, शीत, तुषार (ओस) एवं कोहरा युक्त जलवायु। |
षड्ऋतु अनुसार रसायन
आयुर्वेद के अनुसार विविध ऋतुओं में शरीर को निरोग व स्वस्थ रखने के लिए रसायन सेवन आदि का वर्णन किया गया है। षड्ऋतुओं के अनुसार निम्नलिखित रसायन औषधियों का सेवन करके स्वास्थ्य लाभ प्राप्त किया जा सकता है।
षड्ऋतु अनुसार रसायन औषध | |
प्रारंभिक शीत ऋतु (हेमन्त) | आधा चम्मच हरीतकी एवं सम मात्रा में सोंठ चूर्ण का सेवन। |
उत्तरकालीन शीत ऋतु (शिशिर) | आधा चम्मच हरीतकी एवं सम मात्रा में पिप्पली चूर्ण का ताजे जल के साथ सेवन। |
वसन्त ऋतु | हरीतकी चूर्ण का सममात्रा में शहद के साथ सेवन। |
ग्रीष्म ऋतु | हरीतकी चूर्ण का सममात्रा में गुड़ के साथ सेवन। |
वर्षा ऋतु | हरीतकी चूर्ण का सममात्रा में सैंधव लवण के साथ सेवन। |
शरद ऋतु | हरीतकी चूर्ण का सममात्रा में शर्करा के साथ सेवन। |
शीत काल (हेमन्त व शिशिर ऋतु) में आहार-विहार
स्वास्थ्य की दृष्टि से शीत काल की ये दोनों ऋतुएँ मनुष्य के लिए सबसे अधिक अच्छी मानी गई हैं। इस समय शरीर सबसे अधिक बलयुक्त होता है। दिन छोटे तथा रातें लम्बी होने के कारण शरीर को आराम करने के साथ-साथ भोजन के पाचन के लिए भी अधिक अनुकूलता मिलती है। इन दोनों कारणों से सर्दी में अधिक पुष्टि मिलती है तथा भूख भी अधिक लगती है। इस प्रकार पाचन-शक्ति तेज होने से भारी और अधिक मात्रा में लिया गया आहार भी आसानी से पच जाता है। अतः इस काल में भूखा रहना और रूखा-सूखा भोजन खाना हानिकारक है। पर्याप्त मात्रा में भोजन रूपी ईंधन न मिलने पर पाचक-अग्नि शरीर की धातुओं का ही भक्षण करने लगती है। इससे शरीर में वात दोष बढ़ जाता है। वात में शीत और रूक्ष गुण की अधिकता होती है।
पथ्य आहार
शीत-ऋतु में चिकनाई, मधुर, लवण और अम्ल (खटाई) रस युक्त तथा पोषक तत्त्वों वाले पदार्थों का सेवन करना चाहिए। इन पदार्थों में शुद्ध घी, मक्खन, तेल, दूध, दूध-चावल की खीर, उड़द की खीर, मिश्री, रबड़ी, मलाई, ठण्डे दूध के साथ शहद, गन्ने का रस, दलिया, हलवा, आँवले व सेब का मुरब्बा, पिट्ठी व मेवों से बने पदार्थ, मिठाई आदि उपयोगी हैं। अनाजों में अंकुरित चना, मूँग, उड़द, गेंहूँ या चने की रोटी, कार्नफ्लैक्स, वर्षभर पुराने चावल, मौसमी फल जैसे- सेब, आँवला, संतरा आदि। सब्जियों में- परवल, बैंगन, गोभी, जिमीकन्द, पके लाल टमाटर, गाजर, सेम, मटर, पालक, बथुआ, मेथी आदि हरे शाक, सोंठ, गर्म जल व गर्म पदार्थ स्वास्थ्यवर्धक और पोषक होते हैं।
जो लोग हरड़ का सेवन रसायन के रूप में करते हैं, उन्हें हेमन्त-ऋतु में आधा चम्मच हरड़ के साथ सोंठ का चूर्ण आधा चम्मच, तथा शिशिर-ऋतु में हरड़ के साथ पीपल (पिप्पली) का चूर्ण आधा चम्मच ताजे पानी के साथ लेना चाहिए।
पथ्य विहार
पथ्य आहार के साथ पथ्य विहार (रहन-सहन) को भी ठीक तरह से अपनाना आवश्यक है। सबसे पहले तो मन प्रसन्न और चिन्तारहित होना चाहिए। प्रातः काल सूर्योदय से पहले उठ कर उषःपान, शौच, स्नानादि करके शुद्ध वायुसेवन के लिए भमण करना चाहिए। अपनी शक्ति के अनुसार तेज चाल से चलना उचित है। लौट कर थोड़ा विश्राम करके व्यायाम और योगासन आदि करने चाहिए। इस ऋतु में व्यायाम का विशेष रूप से लाभ होता है। इससे शरीर बलवान् एवं सुडौल बनता है, खाया-िपया ठीक प्रकार पच जाता है। तेल मालिश, उबटन (हल्दी का) व सिर पर तेल मलना खास उपयोगी है। सरसों के तेल की मालिश से त्वचा, सुन्दर और निरोग बनती है तथा फोड़े, फुंसियाँ नष्ट होते हैं। तेल में कपूर डाल कर मालिश करने से जोड़ों का दर्द और गठिया आदि में आराम मिलता है। मालिश के बाद उबटन करना चाहिए। व्यायाम तेल-मालिश के बाद भी किया जा सकता है।
इस मौसम में ठण्ड लगने से जुकाम, बुखार, निमोनिया आदि हो सकते हैं। त्वचा रूखी होती है तथा शीतल वात से खाँसी, श्वास, गठिया जोड़ों का दर्द, खुजली आदि हो सकते हैं। अतः ठण्डी हवा से बच कर रहना चाहिए। ताप वाले स्थान में रहना व सोना चाहिए। भारी, गर्म कपड़ों, कम्बल, रजाई, सूती व ऊनी वत्रों को पहनना व ओढ़ना चाहिए। बिस्तर व वाहन आदि अच्छी तरह ढके होने चाहिए। अग्नि और धूप सेकना लाभदायक है। धूप पीठ की ओर से तथा आग सामने से सेकनी चाहिए। कमरा गर्म करने के लिए रूम हीटर आदि का प्रयोग किया जा सकता है। इस ऋतु में मर्यादित मैथुन किया जा सकता है। रात को सोते समय दूध व वृष्य पदार्थों का सेवन लाभदायक है।
अपथ्य आहार-विहार
शीत-ऋतु में हल्के, रूखे, वातवर्द्धक पदार्थों, कटु, तिक्त और कषाय रस वाले खाद्य एवं पेय-पदार्थों, बासी तथा ठण्डे (आइक्रीम व ठण्डी प्रकृति वाले) पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए। खटाई में इमली, अमचूर, खट्टा दही, आम के अचार आदि का सेवन कम से कम ही करना चाहिए।
देर रात तक जागना, सुबह देर तक सोये रहना, आलस्य में पड़े रहना, श्रम और व्यायाम न करना, देर तक भूखे रहना, अधिक स्नान, बहुत ठण्ड सहना, रात को देर से भोजन करना और भोजन के तुरन्त बाद सो जाना, ये सब अपथ्य विहार हैं, जिनसे बचकर रहना चाहिए।
हेमन्त एवं शिशिर ऋतु में प्राकृतिक भाव | ||
प्राकृतिक भाव | हेमन्त (प्रारम्भिक शीत ऋतु) | शिशिर (उत्तरकालीन शीत ऋतु) |
प्रबल रस | मधुर | तिक्त |
प्रबल महाभूत | पृथ्वी, जल | आकाश |
दोष अवस्था | विकृत पित्त का शमन | कफ दोष का संचय |
जठराग्नि की क्रियाशीलता | वृद्ध | वृद्धतम |
बल | उच्चतम (श्रेष्ठ बल) | उच्चतम (श्रेष्ठ बल) |
हेमन्त और शिशिर ऋतु में अन्तर
दोनों ऋतुओं में मौसम प्रायः एक सा होता है। हेमन्त-ऋतु में सूर्य दक्षिणायन में होता है, अतः औषधियों एवं आहार-द्रव्यों में स्निग्धता, मधुर रस और पौष्टिकता होती है। इस ऋतु में शरीर में दोषों का संचय अल्प मात्रा में होता है। परन्तु शिशिर ऋतु में सूर्य के उत्तरायण में होने से आदान काल के कारण वातावरण में रूक्षता और शीतलता होती है। वनस्पतियों में भी शीतलता, भारीपन और मधुरता होने से शरीर में कफ का संचय होता है। अतः शिशिर-ऋतु में भी उपर्युक्त आहार-विहार करते हुए ठण्ड से बचाव रखना चाहिए। शीतल, हल्के और रूक्ष पदार्थों का सेवन एवं उपवास नहीं करना चाहिए।
उपर्युक्त पथ्य-अपथ्य व आहार-विहार करते हुए शीतऋतु में इतनी शक्ति एकत्र की जा सकती है, कि अन्य ऋतुओं में भी रोगों से बचा जा सके।
वसन्त ऋतु में आहार-विहार
वसन्त-ऋतु सब ऋतुओं से सुहानी होती है। इसमें सब जगह प्रकृति की सुन्दरता दिखाई देती है। रंग-िबरंगे फूलों की सुन्दरता और सुगन्ध से ऐसा लगता है, मानो प्रकृति प्रसन्न मुद्रा में है। यह ऋतु शीतकाल और ग्रीष्म-काल का सन्धि समय होता है। मौसम समशीतोष्ण होता है अर्थात् न तो कँपकँपाती सर्दी होती है और न ही कड़ाके की धूप या गर्मी ही। मौसम मिला-जुला होता है, दिन में गर्मी और रात में सर्दी होती है।
वसन्त ऋतु में प्राकृतिक भाव | |
प्रबल रस | कषाय |
प्रबल महाभूत | पृथ्वी, वायु |
दोष अवस्था | कफ दोष का प्रकोप |
जठराग्नि की क्रियाशीलता | मन्द अथवा अल्प |
बल | मध्यम बल |
शोधन कर्म | कफ दोष शमन हेतु वमन एवं नस्य |
शरीर पर प्रभाव
इस ऋतु में सूर्य की किरणें तेज होने लगती हैं। शीत-काल (हेमन्त और शिशिर ऋतुओं) में शरीर के अन्दर जो कफ जमा हो जाता है, वह इन किरणों की गर्मी से पिघलने लगता है। इससे शरीर में कफ दोष कुपित हो जाता है और कफ से होने वाले रोग (जैसे- खाँसी, जुकाम, नजला, दमा गले की खराश, टॉन्सिल्स, पाचन-शक्ति की कमी, जी-मिचलाना आदि) उत्पन्न हो जाते हैं। वातावरण में सूर्य का बल बढ़ने और चंद्रमा की शीतलता कम होने से जलीय अंश और चिकनाई कम होने लगती है। इसका प्रभाव शरीर पर पड़ता है और दुर्बलता आने लगती है। अतः इस ऋतु में खान-पान का विशेष ध्यान रखना चाहिए। अम्ल, मधुर और लवण रस वाले पदार्थ खाने से कफ में वृद्धि होती है।
पथ्य आहार-विहार
इस ऋतु में ताजा हल्का और सुपाच्य भोजन करना चाहिए। कटु रस युक्त, तीक्ष्ण और कषाय पदार्थों का सेवन लाभकारी है। मूँग, चना और जौ की रोटी, पुराना गेहूँ और चावल, जौ, चना, राई, भीगा व अंकुरित चना, मक्खन लगी रोटी, हरी शाक-सब्जी एवं उनका सूप, सरसों का तेल, सब्जियों में- करेला, लहसुन, पालक, केले के फूल, जिमीकन्द व कच्ची मूली, नीम की नई कोपलें, सोंठ, पीपल, काली मिर्च, हरड़, बहेड़ा, आँवला, धान की खील, खस का जल, नींबू, मौसमी फल तथा शहद का प्रयोग बहुत लाभकारी है। जल अधिक मात्रा में पीना चाहिए। अदरक डाल कर तथा शहद मिलाकर जल तथा वर्षा का जल पीना चाहिए। कफ को कम करने के लिए वमन (गुनगुना जल पीकर गले में अंगुली डालकर उल्टी करना), हरड़ के चूर्ण का शहद के साथ मिला कर सेवन करना उपयोगी है।
नियमित रूप से हल्का व्यायाम अथवा योगासन करना चाहिए। सूर्योदय से पहले भमण करने से स्वास्थ्य में वृद्धि होती है। तैल मालिश करके तथा उबटन लगा कर गुनगुने पानी से (आदत होने पर ठण्डे ताजे पानी से) स्नान करना हितकारी है। औषधियों से तैयार धूमपान तथा आँखों में अंजन का प्रयोग करना चाहिए। स्नान करते समय मलविसर्जक अंगों की सफाई ठीक प्रकार से करनी चाहिए। सिर पर टोपी व छाते का प्रयोग करने से धूप से बचा जा सकता है। स्नान के बाद शरीर पर कपूर, चन्दन, अगरु (अगर), कुंकुम आदि सुगन्धित पदार्थों का लेप लाभकारी होता है।
अपथ्य आहार-विहार
वसन्त-ऋतु में भारी, चिकनाई युक्त, खट्टे (इमली, अमचूर) व मीठे (गुड़, शक्कर) एवं शीत प्रकृति वाले पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए। नया अनाज, उड़द, रबड़ी, मलाई जैसे भारी भोज्य पदार्थ व खजूर का सेवन भी ठीक नहीं है। खुले आसमान में, नीचे ओस में सोना, ठण्ड में रहना, धूप में घूमना तथा दिन में सोना भी हानिकारक है।
ग्रीष्म-ऋतु में आहार-विहार
ग्रीष्म ऋतु में सूर्य की तेज और उष्ण किरणें पृथ्वी का सारा जलीय अंश और चिकनाई सोख लेती हैं। पृथ्वी का तापमान एकदम बढ़ जाता है और सब जगह ताप ही ताप अनुभव होता है। इससे सारा वातावरण रूखा और नीरस दिखाई देता है। यह आदान काल की चरम सीमा होती है। समय की गर्मी और लू का प्रभाव प्राणियों पर ही नहीं, अपितु पेड़-पौधों आदि वनस्पति जगत् और यहाँ तक कि नदी, कुएँ, तालाब आदि पर भी पड़ता है।
ग्रीष्म ऋतु में प्राकृतिक भाव | |
प्रबल रस | कटु |
प्रबल महाभूत | अग्नि+वायु |
दोष अवस्था | वात दोष का संचय, कफ दोष का शमन |
जठराग्नि की क्रियाशीलता | मध्यम |
बल | अल्प बल |
शरीर पर प्रभाव
शरीर को स्वस्थ, बलशाली और सुडौल बनाये रखने के लिए स्निग्धता (चिकनाई) और सौम्यता की आवश्यकता होती है। क्योंकि इस ऋतु में इन दोनों का अभाव होता है, अतः शरीर भी वनस्पतियों की तरह सूखने लगता है। शरीर के रस, रक्त आदि सातों धातु क्षीण होने लगते हैं। अतः दुर्बलता आ जाती है। पसीना अधिक मात्रा में आता है। प्यास अधिक लगती है। बहुत अधिक जल पीने से आँतों में पाया जाने वाला अम्ल जल में घुल कर कम हो जाता है। इससे जीवाणुओं का संक्रमण शीघ होता है और वमन (उल्टी), अतिसार (दस्त) तथा पेचिश आदि रोगों का आक्रमण होने की सम्भावना रहती है। शरीर में पित्त दोष का प्रकोप होने से अत्यधिक प्यास, ज्वर, जलन, रक्तपित्त (नाक आदि अंगों से रक्तस्राव), चक्कर, सिर दर्द आदि रोग भी हो सकते हैं। इन सब रोगों व दुर्बलता आदि से बचने के लिए आयुर्वेद ने इस ऋतु में निम्नलिखित आहार-विहार का निर्देश किया है-
पथ्य आहार-विहार
ग्रीष्म-ऋतु में हल्का, चिकना, मधुर रस युक्त, सुपाच्य, शीतल और तरल पदार्थों का सेवन अधिक मात्रा में करना चाहिए। जल को उबालकर घड़े या फ्रिज में ठण्डा करके पीना चाहिए। चीनी, घी, दूध व मट्ठे का सेवन करना चाहिए। दही में थोड़ा पानी मिलाकर बनाये गये मट्ठे में शक्कर डालकर पीना उपयोगी है। इसमें पिसा जीरा व थोड़ा नमक मिलाकर सेवन करना भी लाभकारी होता है। इसे केवल प्रातः और दोपहर के भोजन के साथ लिया जा सकता है, रात में नहीं।
पुराने जौ, सब्जियों में चौलाई, करेला, बथुआ, परवल, पके टमाटर, छिल्के सहित आलू, कच्चे केले की सब्जी, सहजन की फली, प्याज, सफेद पेठा, पुदीना, नींबू आदि, दालों में छिल्का रहित मूँग, अरहर और मसूर की दाल, फलों में- तरबूज, मीठा खरबूजा, मीठा आम, सन्तरा और अंगूर, हरी पतली ककड़ी, शहतूत, फालसा, अनार, आँवले का मुरब्बा, सूखे मेवों में- किशमिश, मुनक्का, चिरौंजी, अंजीर, बादाम (भिगोए हुए) आदि पथ्य होते हैं।
तरल पदार्थों में- नींबू की मीठी शिकंजी, कच्चे आम का पना, शर्बत, मीठे दही की लस्सी, बेल का शर्बत, मीठा पतला सत्तू, ठण्डाई, चन्दन, खसखस, गुलाब का शर्बत, गन्ने, सेब और मीठे सन्तरे का रस, पाटला के फूलों से सुगन्धित और कपूर से ठण्डा किया जल, नारियल का पानी, मिश्री व घी मिला दूध, भैंस का दूध, रायता, चंद्रमा की किरणों में ठण्डा किया जल जैसे पदार्थ लाभकारी हैं। अरहर की दाल खुश्क होती है। अतः उसमें घी और जीरे का छौंक लगा लेना चाहिए। रसायन के रूप में हरड़ का सेवन समान मात्रा में गुड़ मिला कर करना चाहिए। इस ऋतु में भोजन कम मात्रा में और खूब चबा-चबा कर खाना बहुत जरूरी है। भोजन ताजा और गर्म लेना चाहिए। ठण्डा होने के बाद फिर गर्म करके खाना या फ्रिज में रखे व्यंजन को गर्म करके खाना ठीक नहीं। फ्रिज में देर तक रखे खाद्य पदार्थ का सेवन करना हानिकारक होता है। फ्रिज की अपेक्षा घड़े या सुराही में ठण्डा किया हुआ जल पीना चाहिए।
इस ऋतु में वृक्षों से भरे बाग-बगीचों में भमण करना स्वास्थ्यवर्धक होता है, क्योंकि इनमें सूर्य की किरणें सीधी धरती पर नहीं पहुँच पातीं, अतः वहाँ अधिक गर्मी नहीं होती। रहने का स्थान, विशेषकर शयन कक्ष पानी के फव्वारे, पंखों, कूलर आदि से ठण्डा किया जा सकता है। रात के समय ऐसे स्थान पर सोना चाहिए जहाँ वातावरण ताजी हवा और चंद्रमा की किरणों से ठण्डा हो। आराम कुर्सी आदि पर बैठ कर ठण्डी हवा का सेवन करना चाहिए। शरीर पर चन्दन का लेप करना चाहिए और मोतियों के आभूषण पहनने चाहिए। क्योंकि मोती में शीतलता प्रदान करने का एवं उपचारात्मक प्रभाव होता है। इसमें पित्त के विपरीत गुण होते हैं तथा यह रक्त का शोधन करता है। इसमें नाक एवं मसूढ़ों से होने वाले रक्तस्राव को रोकने की क्षमता होती है। यह शरीर को बल एवं जीवनीय शक्ति प्रदान करता है। बिस्तर पर केले, कमल आदि के पत्ते बिछाने चाहिए। सूती व सफेद या हल्के रंग के वत्र पहनने चाहिए। बाहर धूप में नहीं घूमना चाहिए। यदि जाना ही पड़े तो पैरों में अच्छे जूते पहन कर, सिर ढक कर या छाता लेकर जाना चाहिए। घर से निकलते समय एक गिलास ठण्डा पानी अवश्य पी लेना चाहिए। एक साबुत प्याज साथ में रख लेना चाहिए। इन साधनों से लू नहीं लगती। रात को 10 बजे के बाद तक जागना पड़े, तो बीच-बीच में एक गिलास ठण्डा पानी अवश्य पीते रहना चाहिए। इससे वात और कफ दोष कुपित नहीं होते और कब्ज भी नहीं होता।
रात का भोजन विशेष रूप से हल्का और सुपाच्य होना चाहिए। यदि हो सके तो इस समय सप्ताह में एक-दो बार खिचड़ी का सेवन करें। रात का भोजन जितना जल्दी हो सके कर लेना चाहिए। इस ऋतु में दिन के समय थोड़ा सोया जा सकता है।
अपथ्य आहार-विहार
ग्रीष्म-ऋतु में उष्ण प्रकृति के, खट्टे (अमचूर, इमली आदि), कटु (चरपरे), लवण, रूखे और कसैले पदार्थों का सेवन कम से कम मात्रा में करना चाहिए। भारी, तले हुए, तेज मिर्च-मसालेदार, बासी, लाल मिर्च वाले पदार्थों, उड़द की दाल, लहसुन, सरसों, खट्टी दही, शहद, बैंगन, बर्फ आदि का सेवन बिल्कुल नहीं करना चाहिए। (शहद को औषधि के अनुपान के रूप में लिया जा सकता है।) बाजार में बिकने वाली चाट-चटनी आदि खट्टे पदार्थ, खोये के व्यंजन और उड़द की पिट्ठी से बने पदार्थ भी हानिकारक होते हैं। एक बार में अधिक मात्रा में जल नहीं पीना चाहिए, इससे पाचक-अग्नि दुर्बल होती है। कुछ-कुछ समय बाद एक-एक गिलास करके जल पीना लाभकारी है। विरुद्ध आहार का सेवन नहीं करना चाहिए। एक दम ठण्डे वातावरण से निकल कर धूप में जाना और धूप से आ कर एकदम पानी नहीं पीना चाहिए। थोड़ा रुक कर पसीना सूख जाने के बाद और शरीर का तापमान सामान्य होने पर ही जल आदि पीना चाहिए। फ्रिज के पानी में सादा पानी मिला लेना चाहिए। मद्य-पदार्थों का सेवन तो इस ऋतु में बिल्कुल नहीं करना चाहिए। जो इनके बिना नहीं रह सकते, उन्हें इनमें पर्याप्त मात्रा में जल मिला लेना चाहिए।
ग्रीष्म-ऋतु में निम्नलिखित आचार-व्यवहार से भी बच कर रहना चाहिए- रात को अधिक देर तक जागना (क्योंकि इस समय रातें वैसे ही छोटी होती हैं), दिन के समय धूप में अधिक घूमना, धूप में नंगे सिर घूमना, अधिक समय तक भूखे-प्यासे रहना, अधिक समय तक तथा अधिक मात्रा में व्यायाम करना, मल-मूत्र के वेग को रोकना, स्त्री-सहवास आदि। आयुर्वेद के अनुसार स्त्री-प्रंग का तो ग्रीष्मकाल में सर्वथा निषेध है। परन्तु पूर्ण संयम न हो सके, तो भी इस विषय में यथासम्भव संयमित रहें।
वर्षा-ऋतु में आहार-विहार
वर्षा-ऋतु विसर्ग काल के आरम्भ में आती है। इस समय आकाश और दिशाएँ बादलों से युक्त होती है। वातावरण में हरियाली के साथ-साथ नमी और रूक्षता भरी होती है। नमी के कारण मच्छर-मक्खी आदि जन्तुओं से गन्दगी बढ़ जाती है।
वर्षा ऋतु में प्राकृतिक भाव | |
प्रबल रस | अम्ल |
प्रबल महाभूत | पृथ्वी+अग्नि |
दोष अवस्था | वात दोष की विकृति, पित्त दोष का संचय |
जठराग्नि की क्रियाशीलता | जठराग्नि की विकृतावस्था |
बल | हीन |
शोधन कर्म | वात दोष शमन हेतु बस्ति |
शरीर पर प्रभाव
वातावरण की नमी का प्रभाव शरीर पर भी पड़ता है। ग्रीष्म-ऋतु में पाचन-शक्ति पहले से ही दुर्बल होती है। वर्षा-ऋतु की नमी से वात-दोष कुपित हो जाता है और पाचन-शक्ति अधिक दुर्बल हो जाती है। वर्षा की बौछारों से पृथ्वी से निकलने वाली गैस, अम्लता की अधिकता, धूल और धुएँ से युक्त वात का प्रभाव भी पाचन-शक्ति पर पड़ता है। बीच-बीच में बारिश न होने से सूर्य की गर्मी बढ़ जाती है। इससे शरीर में पित्त दोष जमा होने लगता है। गेहूं, चावल आदि धान्यों की शक्ति भी कम हो जाती है।
इन सब कारणों से व संक्रमण से मलेरिया और फाइलेरिया बुखार, जुकाम, दस्त (आम से युक्त), पेचिश, हैजा, आत्रशोथ (colitis), अलसक, गठिया, सन्धियों में सूजन, उच्च रक्तचाप, फुंसियाँ, दाद, खुजली आदि अनेक रोग आक्रमण कर सकते हैं।
पथ्य आहार-विहार
वर्षा-ऋतु में हल्के, सुपाच्य, ताजे, गर्म और पाचक अग्नि को बढ़ाने वाले खाद्य-पदार्थों का सेवन हितकारक है। ऐसे पदार्थ लेने चाहिए, जो वात को शान्त करने वाले हों। इस दृष्टि से पुराना अनाज, जैसे गेहूँ, जौ, शालि और साठी चावल, मक्का (भुट्टा), सरसों, राई, खीरा, खिचड़ी, दही, मट्ठा, मूँग और अरहर की दाल, सब्जियों में – लौकी, भिण्डी, तोरई, टमाटर और पोदीना की चटनी, सब्जियों का सूप, फलों में – सेब, केला, अनार, नाशपाती, पके जामुन और पके देशी आम तथा घी व तेल से बने नमकीन पदार्थ उपयोगी रहते हैं। आम और दूध का सेवन विशेष रूप से लाभकारी है। आम पका, मीठा और ताजा ही होना चाहिए। कच्चा, खट्टा और पाल से उतरा हुआ आम लाभ के स्थान पर हानि करता है। पके आम को चूस कर ऊपर से दूध पीने से शरीर पुष्ट होता है। यदि एक समय भोजन के स्थान पर आम और दूध का उचित मात्रा में सेवन किया जाए, तो शरीर में ताकत, सुडौलता और पुष्टि आती है। इसी प्रकार पके (बिना दाग वाले) और गूदेदार थोड़े जामुनों का नियमित रूप से सेवन करने से त्वचा के रोग, फोड़े-फुंसियां, जलन और प्रमेह रोगों में लाभ होता है। भुट्टा खाने के बाद छाछ पीने से वह अच्छी तरह पच जाता है । दही की लस्सी में लौंग, त्रिकटु (सोंठ, पिप्पली और काली मिर्च), सेंधा नमक, अजवायन, काला नमक आदि डाल कर पीने से पाचन-शक्ति ठीक रहती है। लहसुन की चटनी व शहद को जल एवं अन्य पदार्थों (जो गर्म न हों), में मिला कर लेना उपयोगी है। इस मौसम में वात और कफ दोषों को शान्त करने के लिए कटु, अम्ल और क्षार पदार्थ लेने चाहिए। अम्ल, नमकीन और चिकनाई वाले पदार्थों का सेवन करने से वात दोष का शमन करने में सहायता मिलती है, विशेष रूप से उस समय जब अधिक वर्षा और आँधी से मौसम ठण्डा हो गया हो। रसायन रूप में हरड़ का चूर्ण सेंधा नमक मिला कर लेना चहिए।
इस ऋतु में जल की शुद्धि का विशेष ध्यान रखना चाहिए। वर्षा का उचित प्रकार से संगृहीत शुद्ध जल उपयोगी रहता है अथवा कुए के जल को उबाल कर ठण्डा करके पीना चाहिए। जल में तुलसी के कुछ पत्ते और फिटकरी (चावल के दाने के बराबर) पीस कर मिलाने से भी जल शुद्ध हो जाता है। आजकल वाटर फिल्टर आदि साधनों से भी जल शुद्ध कर लिया जाता है। यदि ठण्डे जल में शहद मिला लिया जाए तो और अच्छा है। शरीर पर उबटन मलना, मालिश और सिकाई करना लाभदायक है। वत्र साफ-सुथरे और हल्के पहनने चाहिए। भीगने पर तुरन्त वत्र बदल लेना चाहिए। ऐसे स्थान पर सोना चाहिए, जहाँ अधिक हवा और नमी न हो। भोजन भूख लगने पर और ठीक समय पर ही करना चाहिए। रात्रि को भोजन जल्दी कर लेना चाहिए। मच्छर आदि से बचने के लिए मच्छरदानी का प्रयोग करना चाहिए। घर के आस-पास के गड्ढों में जमा हुए और सड़ रहे पानी में मच्छर, मक्खियाँ आदि कीड़े बहुत पनपते हैं व रोग फैलाते हैं, अतः उनमें कीटनाशक छिड़क देना चाहिए। सफाई का विशेष ध्यान रखना आवश्यक है।
अपथ्य आहार-विहार
वर्षा ऋतु में पत्ते वाली सब्जियाँ, ठण्डे व रूखे पदार्थ, चना, मोंठ, उड़द, जौ, मटर, मसूर, ज्वार, आलू, कटहल, सिंघाड़ा, करेला और पानी में सत्तू घोलकर लेना हानिकारक है। वर्षा ऋतु में जब वर्षा बहुत कम होती है, तो पित्त का प्रकोप होने लगता है। इस समय खट्टे, तले हुए, बेसन से बने पदार्थ, तेज-मिर्च मसाले वाले, बासी खाद्य-पदार्थों और पित्त बढ़ाने वाले खाद्यों का सेवन नहीं करना चाहिए। एक लोकोक्ति के अनुसार श्रावण मास में दूध, भाद्रपद में छाछ, क्वॉर मास में करेला और कार्तिक मास में दही का सेवन नहीं करना चाहिए। दिन में सोना, धूप में घूमना व सोना, अधिक मैथुन, अधिक पैदल चलना एवं अधिक शारीरिक व्यायाम भी हानिप्रद है। भारी भोजन, बार-बार भोजन करना और भूख न होने पर भी भोजन करने से बचना चाहिए। रात के समय दही और मट्ठा तो बिल्कुल नहीं लेना चहिए। गीले, नमीयुक्त वत्रों और बिस्तर का प्रयोग नहीं करना चाहिए। शरीर के जोड़ों, विशेषकर जांघों के जोड़ और गुप्त अंगों के आस-पास की चमड़ी को पानी या पसीने से गीला होने से बचाये रखना चाहिए। फल, सब्जी आदि खाद्य-पदार्थों को अच्छी तरह धोये बिना नहीं खाना चाहिए। नदी, तालाब आदि का अशुद्ध जल तथा जहाँ-तहाँ का दूषित जल नहीं पीना चाहिए। जब बादल छाये हों, तब दस्त वाली दवाई का सेवन नहीं करना चाहिए। इस ऋतु में फिसलन होने के कारण साइकिल, स्कूटर, कार आदि वाहन तेज गति से नहीं चलाने चाहिए।
शरीर में घमौरियाँ निकलने पर बर्फ का टुकड़ा मल कर लगाना चाहिए अथवा अन्य अनुकूल औषधि का प्रयोग करना चाहिए।
इन सब उपर्युक्त पथ्यापथ्यों तथा आहार-विहार का ध्यान रखते हुए मनुष्य स्वस्थ रह कर वर्षा-ऋतु का पूरा आनन्द ले सकता है।
शरद्-ऋतु में आहार-विहार
शरद्-ऋतु में बादल विरल हो जाते हैं, वे बहुत धवल स्वच्छ और सुन्दर होते हैं। चंद्रमा की किरणें अधिक प्रभावशाली, स्वच्छ और स्निग्ध हो जाती हैं और मन को आनन्द प्रदान करती हैं। नदियों, झीलों और तालाबों का जल सूर्यताप व चाँदनी के प्रभाव से स्वच्छ हो जाता है। वनस्पतियों, औषधियों आदि में अम्ल रस की अधिकता पाई जाती है।
शरीर पर प्रभाव
वर्षा-ऋतु में शरीर को वर्षा और उसकी शीतलता सहन करने का अभ्यास हो जाता है। वर्षा के बाद शरद्-ऋतु में सूर्य अपने पूरे तेज तथा गर्मी के साथ चमकता है। इस उष्णता के फलस्वरूप वर्षा ऋतु के दौरान शरीर में जमा हुआ पित्त दोष एकदम कुपित हो जाता है। इससे रक्त दूषित हो जाता है। परिणामस्वरूप, पित्त और रक्त के रोग, जैसे- बुखार, फोड़े-फुंसियाँ, त्वचा पर चकत्ते, गण्डमाला, खुजली आदि विकार अधिक उत्पन्न होते हैं। विसर्ग काल का मध्य होने से शरीर में बल की स्थिति मध्यम होती है।
शरद ऋतु में प्राकृतिक भाव | |
प्रबल रस | लवण |
प्रबल महाभूत | जल, अग्नि |
दोष अवस्था | पित्त का प्रकोप, वात दोष का शमन |
जठराग्नि की क्रियाशीलता | वृद्ध |
बल | मध्यम बल |
शोधन कर्म | विरेचन, रक्तमोक्षण, विकृत पित्त प्रशमन |
पथ्य आहार-विहार
कुपित पित्त को शान्त करने के लिए घी और तिक्त पदार्थों का सेवन करना चाहिए। इस दृष्टि से मीठे, हल्के, सुपाच्य, शीतल और तिक्त रस वाले खाद्य और पेय पदार्थ विशेष रूप से उपयोगी हैं। शालि चावल, मूँग, गेहूँ, जौ, उबाला हुआ दूध, दही, मक्खन, घी, मलाई, श्रीखंड, सब्जियों में- चौलाई, बथुआ, लौकी, तोरई, फूलगोभी, मूली, पालक, सोया और सेम, फलों में- अनार, आँवला सिंघाड़ा, मुनक्का और कमलगट्टा लाभकारी हैं। आँवले को शक्कर के साथ खाना चाहिए। तिक्त पदार्थों के साथ घृत को पका कर प्रयोग में लाना चाहिए। इस ऋतु में जल को दिन के समय सूर्य की किरणों में तथा रात्रि को चंद्रमा की किरणों में रख कर प्रयोग में लाना चाहिए। इस ऋतु में जल अगस्त्य तारे के प्रभाव से पूरी तरह विष व अशुद्धि से रहित हो जाता है और सब दृष्टि से बहुत उपयोगी होता है, इसलिए अमृत के समान माना जाता है। पीने के अतिरिक्त स्नान और तैरने के लिए भी इसी जल का उपयोग करना हितकर है। आचार्य चरक ने इस जल को हंसोदक कहा है। इस ऋतु में हरड़ के चूर्ण का सेवन, शहद, मिश्री या गुड़ मिलाकर करना चाहिए।
कुपित पित्त और दूषित रक्त को शान्त करने के लिए विरेचन (दस्तावर औषधि) का प्रयोग और ’रक्त-मोक्षण‘ (दूषित रक्त को निकालने) वाली चिकित्सा करनी चाहिए। इससे उपर्युक्त रोगों से बचा जा सकता है। इस ऋतु में खिलने वाले फूलों को आभूषणों के रूप में प्रयोग में लाना चाहिए। रात्रि के समय चंद्रमा की किरणों में बैठने, घूमने या सोने से स्वास्थ्य पर अच्छा प्रभाव पड़ता है।
अपथ्य आहार-विहार
शरद्-ऋतु में सरसों का तेल, मट्ठा, सौंफ, लहसुन, बैंगन, करेला, हींग, काली मिर्च, पीपल, उड़द से बने भारी खाद्य पदार्थ, कढ़ी जैसे खट्टे पदार्थ, क्षार द्रव्य, तेज मादक द्रव्य, दही और लवण वाले खाद्य पदार्थ अधिक मात्रा में नहीं खाने चाहिए। भूख लगे बिना भोजन नहीं करना चाहिए। इस मौसम में धूप, ओस और पूर्व की ओर से आने वाली हवाओं से बचना चाहिए। अधिक व्यायाम तथा सम्भोग भी हानिप्रद हैं।
वैसे तो सभी ऋतुओं में सभी (छः) रसों का सेवन करना चाहिए। परन्तु ऋतुविशेष में इन उपर्युक्त रसों व द्रव्यों का सेवन विशेष रूप से तथा अधिक मात्रा में करना चाहिए।
ऋतुचर्या में वर्णित आहार-विहार का सेवन करते हुए यह बात ध्यान देने योग्य है कि ऋतुंधि अर्थात् ऋतु के अन्तिम और आने वाली ऋतु के प्रथम सप्ताह में पहले वाले आहार-विहारों को धीरे-धीरे छोड़ कर ही नई ऋतु के लिए बताये गये आहार-विहार का सेवन आरम्भ करना चाहिए। पहले लिये जाने वाले आहार आदि को एकदम छोड़ कर पूरी तरह नये आहार आदि का सेवन करने से असात्म्य (प्रतिकूलता) की स्थिति बन जाती है। इससे रोग उत्पन्न हो सकते हैं।
ऋतु-परिवर्तन के प्रंग में कार्तिक के अन्तिम आठ दिनों तथा मार्गशीर्ष (अगहन) के आरम्भिक आठ दिनों को आचार्यों ने यमदंष्ट्रा (यमराज की दाढ़) कहा है, क्योंकि इन दिनों ऋतु-परिवर्तन जन्य पित्त का प्रकोप होने से ज्वर आदि रोगों का विशेष उभार होता है। यह वह समय है जब हमें प्रकृति के अनुकूल दिनचर्या तथा पथ्य आहार-विहार का पालन करना चाहिए।
ऋतु परिवर्तन के समय पूर्व ऋतु के संचित दोष तथा नई ऋतु के आगमन से हमारी त्रिदोषात्मक मूल प्रकृति तथा बाहर की प्रकृति में भी एक परिवर्तन होता है, अतः इस समय आहार, दिनचर्या व योगाभ्यास पर विशेष ध्यान देना चाहिए। ऐसा करके हम ऋतुपरिवर्तन में दोषों के प्रकोप से होने वाले विकारों से मुक्त रहेंगे।