योग का स्वरूप
योग शब्द वेदों, उपनिषदों, गीता एवं पुराणों आदि में अति पुरातन काल से व्यवहृत होता आया है। भारतीय दर्शन में योग एक अति महत्त्वपूर्ण शब्द है। आत्मदर्शन एवं समाधि से लेकर कर्मक्षेत्र तक योग का व्यापक व्यवहार हमारे शास्त्रों में हुआ है। योगदर्शन के उपदेष्टा महर्षि पतञ्जलि ‘योग’ शब्द का अर्थ चित्तवृत्ति का निरोध करते हैं। प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा एवं स्मृति ये पञ्चविध वृत्तियाँ जब अभ्यास एवं वैराग्यादि साधनों के द्वारा निरुद्ध हो जाती हैं और (आत्मा) अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाता है, तब योग होता है।
महर्षि व्यास योग का अर्थ समाधि करते हैं। व्याकरणशास्त्र में ‘युज्’ धातु से भाव में घञ् प्रत्यय करने पर योग शब्द व्युत्पन्न होता है। महर्षि पाणिनि के धातुपाठ के दिवादिगण में (युज् समाधौ), रुधादिगण में (युजिर् योगे) तथा चुरादिगण में (युज् संयमने) अर्थ में ‘युज्’ धातु आती है। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि संयमपूर्वक साधना करते हुए आत्मा का परमात्मा के साथ योग करके (जोड़कर) समाधि का आनन्द लेना योग है।
आत्मा जब परमात्मा की उपासना करता है तो भगवान् के दिव्य ज्ञान, दिव्य प्रेरणा, दिव्य सामर्थ्य, दिव्य सुख-शान्ति एवं दिव्य आनन्द से युक्त हो जाता है। भगवान् की दिव्यता से जुड़ना यही योग है।
उपर्युक्त ऋषियों की मान्यताओं के अनुसार योग का तात्पर्य स्वचेतना और पराचेतना के मुख्य केन्द्र परमचैतन्य प्रभु के साथ संयुक्त हो जाना है। सम्यक् बोध से रागोपहति होने पर जब व्यक्ति वैराग्य के भाव से अभिभूत होता है, तब वह समस्त क्षणिक भावों, वृत्तियों से ऊपर उठकर आत्मसत्ता के सम्पर्क में आता है। चित्त की पाँच अवस्थाएँ हैं– क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र एवं निरुद्ध। इनमें से प्रथम तीन अवस्थाओं में योग एवं समाधि नहीं होती। एकाग्र और निरुद्ध अवस्थाएँ में अविद्यादि पंच क्लेशों एवं कर्म के बन्धन के शिथिल होने पर क्रमश सप्रज्ञात समाधि (वितर्कानुगत, विचारानुगत, आनन्दानुगत, अस्मितानुगत) और असप्रज्ञात समाधि (भवप्रत्ययगत एवं उपायप्रत्ययगत) की प्राप्ति होती है।
भारतीय वाङ्मय में गीता का अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है। भारत के आधुनिक सन्तों ने तो गीता के योग का प्रचार विश्वभर में किया है। गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण को विभिन्न अर्थों में प्रयुक्त करते हैं- अनुकूलता-प्रतिकूलता, सिद्धि-असिद्धि, सफलता-विफलता, जय-पराजय, इन समस्त भावों में आत्मस्थ रहते हुए सम रहने को योग कहते हैं। असंग भाव से द्रष्टा बनकर, अन्तर की दिव्य प्रेरणा से प्रेरित होकर कुशलतापूर्वक कर्म करना ही योग है।
योग के तीन पहलू
योग के मुख्य रूप से तीन पहलू हैं- एक- योग का ज्ञान, दूसरा- अभ्यास तथा तीसरा आचरण पक्ष। योग एक बहुत ही प्राचीन, वैज्ञानिक, व्यावहारिक एक पंथनिरपेक्ष सत्य है। योग विद्या का प्रामाणिक रूप में यथार्थ बोध होना यह बहुत ही आवश्यक है; क्योंकि योग के नाम पर आंशिक आधा अधूरा अल्पज्ञान, मिथ्याज्ञान एवं अप्रामाणिक व अवैज्ञानिक ज्ञान भी प्रचलित हो रहा है। अत योग के क्षेत्र में कार्य कर रही संस्थाओं, संगठनों एवं योग्य व्यक्तियों का यह बहुत बड़ा दायित्व व कर्त्तव्य है कि योग के सन्दर्भ में प्रामाणिक यथार्थ ज्ञान का ही प्रचार-प्रसार करें तथा उसी के अनुरूप योग के अभ्यास अर्थात् योगाभ्यास में एकरूपता होने से वैश्विक स्तर पर योग की विश्वसनीयता, लोकप्रियता एवं प्रामाणिकता बढ़ेगी। योग एक स्वस्थ, समृद्ध, प्रगतिशील, सभ्य, उन्नत भव्य एवं दिव्य जीवन का पथ है। इसका सम्बन्ध मात्र कुछ यौगिक प्रक्रियाओं एवं अभ्यासों से ही नहीं है, अपितु श्रेष्ठतम दिव्य आचरण या दिव्य जीवन जीना ही योग का अन्तिम ध्येय है। बीमारियों, बुराइयों एवं तनाव आदि से मुक्त स्वस्थ सुखमय एवं शान्तिमय जीवन- यह योग का एक पहलू है। योगी व्यक्ति सब अविद्या, अज्ञान एवं अज्ञानजनित दोषों एवं समस्त दोषपूर्ण प्रवृत्तियों व दुःखों से मुक्त हो जाता है यही निर्वाण, मोक्ष या मुक्ति है। योगी का जब योग साधना एवं सेवा, पुरुषार्थ व परमार्थ, योग व कर्मयोग से शरीर, इन्द्रियां, चित्त व चरित्र शुद्ध हो जाता है और शुद्ध विवेक जागृत हो जाता है तो वह शील, समाधि व प्रज्ञा से युक्त होकर स्वयं में एवं समष्टि में पूर्णता की अनुभूति करता हुआ पूर्ण कृतज्ञतापूर्वक पूर्णज्ञान, पूर्णनिष्ठा एवं पूर्ण पुरुषार्थ के साथ निमित्त मात्र होकर अपने कर्त्तव्य का दिव्यतापूर्वक निर्वहन करता है। योगी का ऐसा दिव्यता युक्त आचरण या दिव्य जीवन ही योग का अन्तिम परिणाम है। योग से जब मनुष्य का विचार, आहार व व्यवहार शुद्ध हो जायेगा तो संसार में विश्वबन्धुत्व, सहअस्तित्व एवं एकत्व अपने आप स्थापित होगा। हैल्थ, हैपीनेस एवं हर्मनी का माध्यम है योग। स्वास्थ्य, विश्वशान्ति एवं विश्व की समग्र, स्थाई विकेन्द्रित एवं न्यायपूर्ण सात्त्विक समृद्धि का भी एकमात्र साधन है योग। यह योग विद्या ही पराविद्या, ब्रह्मविद्या या अध्यात्मविद्या है। योग के सभी पहलुओं को यथार्थ रूप में समझने अभ्यास करने एवं योगयुक्त आचरण करने की आज के विविध चुनौतीपूर्ण वातावरण में नितान्त आवश्यकता है। हठयोग, क्रियायोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग एवं अष्टाङ्गयोग (राजयोग) का जब यथार्थ ज्ञान, अभ्यास एवं आचरण के स्तर पर मनुष्य के जीवन में घटित होगा, तभी यह मानव समाज एवं विश्व बहुत ही स्वस्थ, सुन्दर सुखशान्तिमय एवं पूर्ण समृद्धिमय होगा।
योग के प्रकार
दत्तात्रेय योगशास्त्र तथा योगराज उपनिषद् में मत्रयोग, लययोग, हठयोग तथा राजयोग के रूप में योग के चार प्रकार माने गये हैं। महर्षि पतञ्जलि का अष्टांगयोग सार्वभौमिक, प्रामाणिक व वैज्ञानिक माना गया है।
- मत्रयोग- ओ3म् एवं गायत्री आदि मत्रों का विधिपूर्वक जप करने से योग की सिद्धियाँ एवं दिव्य शक्तियाँ प्राप्त होती हैं।
- लययोग- दैनिक क्रियाओं को करते हुए सदैव ईश्वर का ध्यान करना लययोग है।
- हठयोग- विभिन्न मुद्राओं, आसनों, प्राणायाम एवं बन्धों के अभ्यास से शरीर को निर्मल एवं मन को एकाग्र करना हठयोग कहलाता है।
- राजयोग- यम-नियमादि के अभ्यास से चित्त को निर्मल कर ज्योतिर्मय आत्मा का साक्षात्कार करना ‘राजयोग’ कहलाता है। ‘राजयोग’ शब्द ‘राजृ दीप्तौ’ धातु से निष्पन्न हुआ है। ‘राज’ का अर्थ दीप्तिमान्, ज्योतिर्मय तथा ‘योग’ का अर्थ समाधि अथवा अनुभूति है।
गीता में ध्यानयोग, सांख्ययोग एवं कर्मयोग के बारे में विस्तृत विवेचन है। गीता के पंचम अध्याय में संन्यासयोग एवं कर्मयोग में कर्मयोग को श्रेष्ठ माना गया है।
अष्टांग योग- महर्षि पतञ्जलि ने योगों में अष्टांग योग को मुख्यतया लक्षित कर योगसूत्रों में इसकी विवेचना की है, जिसका विस्तृत वर्णन हम आगे करेंगे। यौगिक भेदों के बारे में जब हम शास्त्राsं पर दृष्टिपात करते हैं, तब यही निष्कर्ष निकलता है कि आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में जितने उपाय या विधियाँ प्रचलित थीं, उन सबको योग के नाम से अभिहित किया जाता था।
योग एवं अध्यात्म की सात्त्विक आर्ष परम्परा
योग करना व कराना तथा योग व अध्यात्म का प्रचार करना हम सबका परमधर्म, सेवाधर्म, राष्ट्रधर्म व भागवतधर्म है। हमें योगी, निरोगी, सहयोगी, उपयोगी, उत्पादक, सकारात्मक, परमपुरुषार्थी, आशावादी, राष्ट्रवादी, अध्यात्मवादी व न्यायवादी बनना है।
मानवीय चेतना के दो स्तर- मनुष्य का यदि अधोगमन या पतन हो तो उसकी सीमा भी अनन्त है जैसे कि धरती पर हिंसा, क्रोध, घृणा, युद्ध, झूठ, व्यभिचार, बलात्कार व अन्याय- ये सब क्रूरताएं कोई पशु, पक्षी या पेड़, पौधे नहीं करते अपितु स्वयं इंसान से ही इन बुराईयों का जन्म होता है। दूसरी तरफ यदि मनुष्य ऊपर उठे तो मानव से महामानव, अतिमानव, दिव्य मानव और साक्षात् शाश्वत का प्रतिरूप बनकर सम्पूर्ण सृष्टि को सुख, समृद्धि देने वाला देवता बन सकता है।
‘उद्यानं ते पुरुष नावयानं जीवातुं ते दक्षतातिं कृणोमि’। (अथर्व.- 8.1.6) हे नर! देख, जीवन में सदा तेरी उन्नति ही होनी चाहिए, अधोगति नहीं।
अशुभ से बचने का उपाय- (1) परिणाम में अनन्त दुःखप्राप्ति का भय अथवा प्रतिपक्ष की भावना। (2) गुरु की शरणागति अर्थात् गुरु आज्ञा का सौ प्रतिशत पालन करना।
दिव्य जीवन का उपाय- योगचेतन, उच्चचेतना, दिव्यचेतना, आत्मचेतना, गुरुचेतना, ऋषिचेतना व भागवत चेतना में जीने का प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करें।
- तीन प्रकार के विधान या कानून को कदापि न तोड़े- भगवान् का विधान, राष्ट्र का संविधान व आत्मा का विधान (आत्मा की आवाज)।
- तीन को बढ़ाने का सर्वदा प्रयास करें- ज्ञान, श्रद्धा व पुरुषार्थ तथा तीन से सदा बचें- अज्ञान, अश्रद्धा व अकर्मण्यता (प्रमाद)।
किसी भी मत, सम्प्रदाय या मजहब से जुड़े हुए प्रत्येक ईश्वरभक्त व राष्ट्रभक्त भारतीय को जीवन में तीन व्रतों के पालन का संकल्प अवश्य करना चाहिए।
- प्रतिदिन योगाभ्यास करने व करवाने का व्रत।
- प्रतिदिन जीवन उपयोग में आने वाली स्वदेशी वस्तुओं के ही प्रयोग का व्रत।
- स्वयं व समष्टि में भगवान् को अनुभव करते हुए दिव्यभाव से सबकी सेवा करने का व्रत।
भारतवर्ष में सदा से चली आई वैदिक आर्य (हिन्दू) संस्कृति का मूल योग है। योग ही रोगमुक्त, नशामुक्त, दवामुक्त, व्यसनमुक्त व तनावमुक्त दिव्य जीवन का मूल है। सृष्टि की समस्त भागवत दिव्यता योग में ही समाहित है। योग एक तरफ स्थूल दोषों का नाश करके शरीर के अंग-प्रत्यंग व समस्त धातुओं का सन्तुलन बनाकर रखता है तो दूसरी तरफ मन, वाणी, बुद्धि को सन्तुलित करके सूक्ष्म दोषों का क्षय व शुभ का उदय करता है, अशुभभाव व अशुभ वृत्तियों को दग्धबीज करता है।
तं योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम्।
अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवाप्ययौ।। (कठोपनिषद्- 6.11)
योग करने वाला व्यक्ति अप्रमत्त अर्थात् प्रमादरहित हो जाता है। योग से शुभ संस्कारों और विवेक का प्रभव (प्रादुर्भाव) होता है और अशुभ संस्कारों व अविवेक का अप्यय (नाश) होता है।
स्वदेशी मात्र कोई वस्तु नहीं अपितु ईश्वरीय न्याय या नैसर्गिक न्याय पर आधारित अत्यन्त विराट् व गम्भीर जीवन का दर्शन है।
स्वदेशी भाषा, वेशभूषा, भेषज, भजन ये मात्र भावना या स्वार्थ पर टिका हुआ दर्शन नहीं, अपितु व्यष्टि, समष्टि व राष्ट्र के सर्वांगीण गौरवशाली विकास एवं समृद्धि का मूल है। यह समग्र, स्थायी, अहिंसक व न्यायपूर्ण विकास या समृद्धि का दर्शन है।
Swadeshi is the Principal of Inclusive, Sustainable, Passive & Justicefull Prosperity.
सर्वत्र भगवान् के दर्शन का अर्थ है- यह संसार उस ईश्वर की कृति है और वह स्वयं इसके कण-कण में समाया है- ‘ईशा वास्यमिदं सर्वम्, सर्वं खलु इदं ब्रह्म, वासुदेव सर्वम्, सियाराममय सब जग जानी’।
स एवाधस्तात्स उपरिष्टात्स पश्चात्स पुरस्तात्स दक्षिणत स उत्तरत।
स एवेदं, सर्वमित्यथातो।़हङ्कारादेश एवाहमेवाधस्तादहमुपरिष्टादहं
पश्चादहं पुरस्तादहं दक्षिणतो।़हमुत्तरतो।़हमेवेदं सर्वमिति। (छान्दोग्योपनिषद्-7.25.1)
अर्थात् हमारे पास शरीर, मन, वाणी, विचार, से सम्बन्धित या आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, पद, प्रतिष्ठा के रूप में जो भी सामर्थ्य है, उसे ईश्वर व राष्ट्र की सेवा में समर्पित कर देना; क्योंकि जो भी हमें मिला है, हमारे पास है, वह सब ईश्वर या राष्ट्र से ही मिला है। सामर्थ्य को भोग करने से हमारे पुण्य क्षीण हो जाते हैं और सामर्थ्य को सेवा में लगाने से हमारे पुण्य बढ़ जाते हैं, यही तो हमारी अनश्वर शाश्वत सम्पत्ति है। जो व्यक्ति ऐसा जीवन जीता है उसका जीवन दिव्य, महान्, यशस्वी व सर्वलोकहितकारी बन जाता है। वह इस धरती पर अमृतपुत्र, ईश्वरपुत्र, शाश्वत का, ऋषियों का प्रतिनिधि, प्रतिरूप या मूर्त्तरूप होकर जीवन जीता है।
योग के मूलभूत सिद्धान्त
- योग कोई मजहबी परम्परा या अभ्यास नहीं है, अपितु योग एक वैज्ञानिक, सार्वभौमिक व पंथनिरपेक्ष जीवन पद्धति है। रोगियों के लिए योग एक सम्पूर्ण चिकित्सा (पद्धति) तथा योगियों के लिए एक साधना पद्धति, मुक्ति का मार्ग और जीवन में पूर्णता प्राप्त करने का साधन है।
- योग पर अनुसन्धान व अनुभव करके हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि योग से हमें पाँच मुख्य लाभ होते हैं-
(क) एक-एक सेल से लेकर पूरे सिस्टम का सन्तुलन, शरीर के सभी कैमिकल्स, सॉल्ट्स व हार्मोन्स से लेकर सम्पूर्ण शारीरिक संतुलन योग से होता है। ‘समत्वं योग उच्यते’।
(ख) डिजर्नेट हुए सेल्स को हम योग से रिजर्नेट कर लेते हैं।
(ग) मनुष्य में निहित ज्ञान शक्ति एवं सामर्थ्य एक से पाँच प्रतिशत ही जागृत अवस्था में होता है। अन्य शक्तियां प्रसुप्त अवस्था में होती हैं। योग से हमारी सुप्त ज्ञान शक्ति एवं अन्य अपरिमित दिव्य शक्तियों का जागरण होता है। योग नर से नारायण, जीव से ब्रह्म, मानव से महामानव बनाने वाली आध्यात्मिक विद्या या आध्यात्मिक विज्ञान है।
(घ) योग से हमारे अज्ञान, अशुभ, अविद्या का धीरे-धीरे क्षय तथा विवेक, शुभ व समस्त दिव्यताओं का निरन्तर उदय या विकास होता है।
(ङ) प्रत्येक मनुष्य के शरीर में कोई भी रोग तथा चित्त में कोई विकार पैदा हो सकता है। परन्तु योग से हमारे शरीर व चित्तगत समस्त विकारों के बीज नष्ट हो जाते हैं और योगी निर्बीज हो जाता है। योग से व्याधि की समाप्ति तथा समाधि एवं दिव्य जीवन की प्राप्ति होती है। दिव्यज्ञान, दिव्य प्रेम, करुणा, वात्सल्य, दिव्यशक्ति, सामर्थ्य एवं दिव्य विभूतियों से युक्त होता है योगी।
- योगी के जीवन में अर्थात् जो आत्माएं योग, प्राणायाम व ध्यानादि का नियमित श्रद्धापूर्वक अभ्यास करते हैं तथा योगयुक्त दिव्य आचरण करते हैं, उनके जीवन में 10 बड़े सत्यों का समावेश हो जाता है। इन्हें ही योग में यम नियम कहते हैं- अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह- ये पांच यम हैं तथा शौच (शुचिता), सन्तोष, तप, स्वाध्याय एवं ईश्वरप्रणिधान- ये पांच नियम हैं। अत योगी कभी भी हिंसा, झूठ, बेईमानी, अब्रह्मचर्य, असंयम, लालच में नहीं पड़ता तथा उसके जीवन में अशुचिता (अपवित्रता), असंतोष, अकर्मण्यता, आत्मविमुखता व नास्तिकता नहीं होती है। योगी अष्टांग योग का पालन करता है अथवा अष्टांग योग को अपने आचरण में उतारता है।
अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहाः यमाः। (योगसूत्र- 2.30)
शौचसन्तोषतपस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः।। (योगसूत्र- 2.32)
- लगभग 700 करोड़ की विश्व की कुल आबादी में से यदि एक प्रतिशत जनसंख्या भी योगी बन जायेगी, तो यह दुनियां बहुत सुन्दर समृद्धिमय व शान्तिमय हो जायेगी, क्योंकि एक योगी की आत्मा में हजारों लाखों व्यक्तियों से अधिक सामर्थ्य व दिव्यता होती है।
- योग न करने वाले या योगी जीवन न जीने वाले लोग सात चीजों के लिए अधिकांशत संघर्ष करते दिखते हैं- सत्ता, सम्पत्ति, सम्मान, भौतिक इन्द्रिय सुख, भौतिक सम्बन्ध, बाह्य समृद्धि एवं सफलता, इन्हीं की प्राप्ति को सामान्य लोग अपने जीवन का अन्तिम लक्ष्य समझ लेते हैं। योगी आत्माओं के जीवन में भी ये सत्य होते हैं, लेकिन योगी इन्हें ईश्वर का अनुग्रह, माता-पिता व गुरुजनों व समाज के आशीर्वाद से प्राप्त होने वाले कर्त्तव्य के रूप में स्वीकार करता है- ये योगी के जीवन के बाय-प्रोडक्ट बन जाते हैं। योगी के जीवन का मुख्य या अन्तिम ध्येय तो योग-कर्मयोग, योग-यज्ञ, साधना-सेवा, पुरुषार्थ, अभ्युदय व निश्रेयस ही होता है।
- स्वास्थ्य, सुन्दरता, शक्ति, शान्ति, समृद्धि शाश्वत स्थाई सुख व सफलता- ये सात विश्व के सभी इंसानों की मूलभूत कामनाएं या इच्छाएं हैं। इन सात विवेकपूर्ण कामनाओं की भी प्राप्ति होती है योग से और योगी अन्तत अकाम, पूर्णकाम, आप्तकाम, निष्काम या ब्रह्मकाम होकर जीवन्मुक्त होकर भगवान् का दिव्य यंत्र या दिव्य प्रतिनिधि होकर जीता है।
- योगी उच्च आध्यात्मिक दिव्य जीवन जीता हुआ भी सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार, यथायोग्य, विवेकपूर्ण एवं न्यायपूर्ण व्यवहार या आचरण करता है। ये योगी के बाह्म आचरण के पाँच सत्य हैं।
- योग से मनुष्य की उत्पादकता, सृजनात्मकता, सकारात्मकता, एवं सभी प्रकार की दिव्यता बढ़ती है। योग मनुष्य के बाह्य व आन्तरिक विकास का एक सर्वांगीण साधन या माध्यम है।
- योगी वसुधैव कुटुम्बकम्, सह-अस्तित्व एवं एकत्व के तीन उच्च आध्यात्मिक आदर्शों को अपने जीवन में जीता है। विश्व का सबसे घातक या विध्वंसकारी विचार है कि केवल मैं और मेरा मजहब, विचार, सिद्धान्त एवं मान्यताएं ही केवल सत्य हैं, मैं और मेरा मजहब ही सर्वश्रेष्ठ है ऐसा योगी नहीं सोचता, अपितु सम्पूर्ण विश्व को ही भगवान् की रचना मानता है। सभी सर्वश्रेष्ठ हैं, सभी जीव एक ही ईश्वर की सन्तानें हैं, अत हम सब एक ही हैं। ज्ञान, कौशल, राष्ट्र, विभिन्न परम्पराएं, सम्पन्नता एवं ताकत के आधार पर परस्पर ऊँच-नीच का भाव योगी नहीं रखता। योगी भगवान् को सर्वोच्च शक्ति के रूप में स्वीकार करता तथा अनुभव करता है और वह भगवान् के विधान, वेदानुकूल, आत्मानुकूल या यूनिवर्सल लॉ के अनुरूप आचरण करता है।
- योग जीवन-प्रबन्धन, तनाव-प्रबन्धन, व्यक्तित्व विकास एवं आदर्श दिव्य जीवन निर्माण की एक बहुत बड़ी वैज्ञानिक कला है। मनुष्य के भीतर के असीम ज्ञान, शक्ति सामर्थ्य, सत्य, प्रेम, करुणा व दिव्य ऐश्वर्य के जागरण का साधन या माध्यम है योग। योग मात्र एक व्यायाम, प्राणायाम या ध्यान मात्र ही नहीं है, ये भी योग की विधाएं हैं। वास्तव में तो एक- एक श्वास एवं पूरा जीवन ही योग है।
- यौगिक क्रियाओं व आसानों से हमारे शरीर का हार्डवेयर, प्राणायाम, ध्यान, समाधि, तप, स्वाध्याय व ईश्वरप्रणिधान से हमारा सॉफ्टवेयर अर्थात् आत्मा की सम्पूर्ण दिव्यता की जागृति व अनुभूति होती है।
- श्रेष्ठ प्रारब्ध, दिव्य व श्रेष्ठ वातावरण, श्रेष्ठ प्रशिक्षक, श्रेष्ठ प्रशिक्षण तथा अखण्ड पुरुषार्थ- ये पांच साधन हैं जीवन को श्रेष्ठतम व दिव्य बनाने के। इन पाँचों में भी पुरुषार्थ तत्त्व सबसे ऊँचा है। योग से मनुष्य का समस्त प्रकार का पुरुषार्थ पूरी तरह से जागृत हो जाता है। पूरा जीवन पुरुषार्थ ही तो है तथा पुरुषार्थ-चतुष्टय को ही भारतीय संस्कृति में धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष नाम से कहा जाता है।
- स्वस्थ शरीर, तीव्र मेधा, सत्य में अखण्ड निष्ठा, उत्साह, पुरुषार्थ, पराक्रम व कृतज्ञता- ये सात भगवान् की दिव्य विभूतियां हैं या दैवी सम्पदाएं हैं। योग से इन सातों दैवी सम्पदाओं का विकास होता है।
- योग न करने वाले लोग सामान्यत निम्न चेतना में जीते हैं। योगी सदा उच्च, दिव्य या भगवान् चेतना में जीता हुआ देवत्व, ऋषित्व व भगवत्ता में जीता है। योगी ऋषि सत्ता व भागवत सत्ता का मूर्त्तरूप, प्रतिरूप या प्रतिनिधि हो जाता है।
- योगी भीतर से पूर्ण शान्त, सहज व बाहर से पूर्ण क्रियाशील, पूर्ण पुरुषार्थमय जीवन जीते हुए भगवान् के दिव्य ज्ञान, दिव्य शक्तियों व दिव्य ऐश्वर्य से युक्त होकर, भगवान् का यंत्र बनकर दिव्य योगमय, पूर्ण सुखमय, शान्तिमय, पूर्ण समृद्धिमय व पूर्ण स्वाधीनता के साथ जीवन को जीता है। योगी के जीवन में न तो बाह्य दरिद्रता होती है न ही आन्तरिक कृपणता व दरिद्रता। योगी का सम्पूर्ण ऐश्वर्य, सामर्थ्य, विभूति व समृद्धि समष्टि की सेवा के लिए होती है। योगी न तो साधनहीन दुःखी दरिद्र होता है, नहीं साधन सम्पन्न दुःखी दरिद्र अपितु योगी साधन सभी प्रकार की दरिद्रता, अज्ञान, अभाव एवं अन्याय से मुक्त देखना चाहता है।
- सुखी, दुःखी, पुण्यशील व अपुण्यशीलों के प्रति सदा क्रमश मैत्री, करुणा, मुदिता व उपेक्षा का भाव रखता हुआ योगी सदा प्रसन्नचित्त व आनन्दित रहता है। वह एक क्षण के लिए भी अशुभ में नहीं जीता। वृत्तिसारूप्य होकर योगी वेगों व विकारों में बहता या बहकता नहीं है। रोंग एक्शन, रियेक्शन व इन-एक्शन से योगी दूर रहकर डिवाइन एक्शन में रहता है अथवा अपने आत्मस्वरूप में, अपनी पूर्णता में सदातृप्त अपिपास होकर जीवन्मुक्त जीवन को जीता है।
- योगी व्यक्ति किसी भी मजहबी व अन्य विकार के भौतिक उन्माद से रहित होकर स्वयं एक पूर्ण आध्यात्मिक जीवन जीता है तथा समष्टि में आध्यात्मिकता की प्रतिष्ठा हेतु पूर्ण पुरुषार्थ करता है। आध्यात्मिक जीवन, आध्यात्मिक परिवार, समाज, राष्ट्र व आध्यात्मिक विश्व का निर्माण ही योगी के जीवन का एक मात्र बाह्य ध्येय रहता है। व्यष्टि से समष्टि की मुक्ति अर्थात् अपने व जगत् के समस्त दुःखों को दूर कर वह सदा सर्वत्र सुख व समृद्धि देखना चाहता है।
- योगी सत्य, प्रेम व करुणामय जीवन जीते हुए स्वयं से लेकर समष्टि तक सर्वत्र अज्ञान, अभाव व अन्याय से मुक्त संसार देखना चाहता है। अहम् से वयम् की यात्रा होती है योगी की। मैं भी सत्य, धर्म, न्याय, पुरुषार्थ, परमार्थ, साधना सेवा, योग व कर्मयोग के मार्ग पर चलूँ तथा अपने सम्पूर्ण सामर्थ्य से सबको भी चलाऊँ; क्योंकि यही एक मात्र मानव मात्र के कल्याण का मार्ग है। मैं स्वयं चरित्रवान, महान, स्वस्थ, सुखी, समृद्ध बनूँ तथा सबको भी बनाऊँ। योगी ‘संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्’ की ईश्वरीय आज्ञा का पालन करता है।
- हठ, दुराग्रह, स्वार्थ व अविद्या से रहित होकर संसार की सभी विवेकशील आत्माओं को विश्व की समग्र व स्थाई समृद्धि व विकास तथा विश्व में स्थाई शान्ति के लिए अष्टाङ्गयोग, हठयोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग, एवं भक्तियोग आदि योग की वैज्ञानिक, सार्वभौमिक व पंथ निरपेक्ष परम्परा को स्वीकार करना चाहिए तथा इसे पूर्ण गौरव दिना करना चाहिए। यही एक मात्र विश्व के कल्याण का मार्ग है।
- तस्माद् योगी भव अर्जुन (गीता)। योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, है अर्जुन! संसार में योगी होना सबसे बड़ी सफलता या उपलब्धि है। अत हम सब वर्ग, समूह, जाति, मजहबों एवं अलग-अलग परम्पराओं व राष्ट्र की राजनैतिक सीमाओं में रहते हुए यदि योगी हो जाते हैं, तो हमारे जीवन में व इस जगत् में कोई भी दुःख, दरिद्रता व कोई भी समस्या नहीं रहेगी।
- रोगमुक्त तनावमुक्त व्यसनमुक्त बुरे अभ्यासों से मुक्त स्वस्थ, सुखी, समृद्ध व पूर्ण शान्तिमय जीवन जीने का मार्ग है योग। 24 घण्टे में प्रात या सायंकाल 1 घंटा योग को जो सर्वोच्च प्राथमिकता देते हैं, उनके जीवन की सभी प्राथमिकताएं भी स्वत ही पूरी हो जाती हैं। सभी को एक सुनिश्चित समयावधि का जीवन मिला है। इसमें हमें 100 वर्ष की प्राथमिकता तय कर लेनी चाहिए और उन्हें फिर पूरे वेग, उत्साह, पराक्रम व पुरुषार्थ से पूरा करना चाहिए। प्रातकाल की सर्वोच्च प्राथमिकता योग तथा दिनभर की प्राथमिकता अपने दायित्वों के आधार पर तय करनी चाहिए; क्योंकि प्रात योग करने वाले व्यक्ति को दिनभर समता एवं कुशलता पूर्वक अपने कर्त्तव्य के निर्वहन की पूरी ऊर्जा प्राप्त हो जाती है। समत्वं योग उच्यते, योग कर्मसु कौशलम्। -गीता।
योगी की प्रार्थना
- हे प्रभो! आपने यह सुन्दर जीवन और जगत् बनाकर हम सब दिव्य संतानों पर बहुत बड़ा उपकार किया है। अत हमारे जीवन और सम्पूर्ण सामर्थ्य पर भी सबसे पहला अधिकार आपका ही है। यह सत्य हर पल हम स्वीकार करते हैं।
- हे ज्ञानमय, पुरुषार्थमय, प्रेममय, करुणामय एवं वात्सल्यमय प्रभो! हमारे जीवन को भी ज्ञानमय, पुरुषार्थमय, प्रेम, करुणा एवं वात्सल्यमय बना दो।
- हे सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वान्तर्यामी, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान्, सर्वज्ञ, सर्वकर्त्ता, सर्वनियन्ता, न्यायकारी, दयालु, परमेश्वर! हम आपको मूर्त्त-अमूर्त्त, दृश्य-अदृश्य, व्यक्त-अव्यक्त, प्रत्यक्ष-परोक्ष, सगुण-साकार, निर्गुण-निराकार, विश्वमय व विश्वातीत रूप में हर समय अनुभव करें; ऐसा ज्ञान, भक्ति व श्रद्धा का वरदान हमें प्रदान करो।
- हे प्रभो! सम्पूर्ण ज्ञान, शक्ति, ऐश्वर्य एवं दिव्य संवेदनाओं का मूल स्रोत आपको ही अनुभव करते हुए कर्त्तव्य के अहंकर से मुक्त होकर, प्रत्येक कर्म को आपकी पूजा मानकर करते हुए, आपका यंत्र बनकर जिएँ अर्थात् आपका प्रतिरूप होकर, उत्साह व प्रसन्नता पूर्वक हम सब दिव्य जीवन जिएँ।
- हे परमप्रभो! हम अज्ञान एवं अज्ञानजनित अभावों, अपूर्णताओं, अन्यायों, अविवेकपूर्ण कामनाओं तथा समस्त अशुभ आचरण से मुक्त होकर अकाम, आप्तकाम, आत्मकाम, ब्रह्मकाम होकर सदा आपके विधान के अनुरूप जीवन्मुक्त होकर जीवन जिएँ, यही निवेदन है।
- एक क्षण के लिए भी हम अज्ञान, आलस्य, प्रमाद अथवा अन्य किसी भी अशुभ का आदर न करें, हमारे जानने व जीने में भेद न रहे, हम सदा राग-द्वेष से मुक्त रहें, भूलों व दोषों को बार-बार न दोहराएँ- ऐसी पूर्ण दृढ़ता, सत्य में अखण्ड निष्ठा, समष्टि के प्रति पूर्ण कृतज्ञता तथा सर्वांश में निर्दोष होने की अभीप्सा हमारे भीतर सदा जागृत रहे। हे देवाधिदेव! हम सदैव आत्मप्रतिष्ठ होकर, आपके शरणागत होकर जिएँ।
- हे प्रभो। हमारा शरीर पुरुषार्थी, प्राण बलशाली, मन संयमी, बुद्धि विवेकवती, हृदय अनुरागी अर्थात् श्रद्धा, भक्ति, प्रेम व करुणा से भरा हुआ तथा सम्पूर्ण सामर्थ्य सेवा के लिए हो।
- हे करुणानिधान! सब कुछ आप से ही है, आपका ही है, आप में ही है, आपके लिए ही है। मैं भी प्रभु आपका ही हूँ और आप सदा मेरे हो। हे नाथ! हे नारायण! मैं तुझे भूलूँ नहीं, सदा आपकी शरण में रहूँ।
- यदग्ने स्यामहं त्वं त्वं वा घा स्या अहम्। स्युष्टे सत्या इहाशिष।। (ऋग्वेद- 8.44.23)
अर्थात् हे ज्ञानस्वरूप प्रभो! ऐसी कृपा करो कि हम तुझमें एकात्म हो जाएँ तथा तुम्हारी समस्त दिव्यताएँ हममें प्रकट हो जाएँ, जिससे कि हमारे लिए प्रदत्त तुम्हारे समस्त दिव्य आशीर्वाद इस धरती पर सत्य हो जाएँ, फलित हो जाएँ, चरितार्थ हो जाएँ।
मनुष्य प्रकृति या परमेश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना है और मनुष्य के पिण्ड व ब्रह्माण्ड में बीज रूप में जो सम्पूर्ण ज्ञान, संवेदना, सामर्थ्य, पुरुषार्थ, सुख, शान्ति व आनन्द सन्निहित है, उसका पूर्ण प्रकटीकरण व जागरण केवल योगविद्या एवं योगाभ्यास से ही संभव है। आज विश्व समुदाय के सम्मुख सबसे बड़ी चुनौतियां हैं- हिंसा, अपराध, आतंकवाद, युद्ध, नशा, भ्रष्ट आचरण व भ्रष्टाचार, विचारधाराओं का चरम संघर्ष, अन्याय, अमानवीय, असमानता, स्वार्थपरता, अहंकार एवं अकर्मण्यता और इन सबका एकमात्र समाधान हैं योग विद्या, अध्यात्म विद्या का समग्रबोध, योग का नियमित अभ्यास एवं योगमय दिव्य श्रेष्ठ आचरण।
एकत्व सहअस्तित्व एवं विश्वबन्धुत्व/शुद्ध ज्ञान, शुद्ध कर्म एवं शुद्ध उपासना। ज्ञानयोग, कर्मयोग एवं भक्तियोग। तप, स्वाध्याय एवं ईश्वरप्रणिधान। व्रत, दीक्षा एवं श्रद्धा। प्रार्थना, पुरुषार्थ एवं परमार्थ ये योग के मूलभूत सिद्धान्त हैं। इसके विपरीत अज्ञान, अश्रद्धा एवं अकर्मण्यता-ये योग के सबसे बड़े बाधक तत्त्व हैं। यम, नियम, आसन, प्राणायाम एवं ध्यान का संतुलित नियमित सही अभ्यास तथा योगविद्या, अध्यात्मविद्या, तत्वज्ञान, अपराविद्या व पराविद्या के द्वारा जब हमारा मस्तिष्क ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल से हृदय श्रद्धा-भक्ति-प्रेम-करुणा व वात्सल्य से तथा पूरा अस्तित्व अखण्ड-प्रचण्ड पुरुषार्थ, साधना, सेवा व निष्काम दिव्य कर्म से प्रकाशित हो जाता है, तब हम सच्चे योगी, पूर्ण निरोगी, कर्मयोगी व पूरी मानवता या समष्टि के लिए पूर्ण उपयोगी बन जाते हैं।
पूरे जीवन को एक शब्द में कहें या परिभाषित करें तो वह है अभ्यास। जैसे हमारे सोचने, विचारने, खाने-पीने, कमाने, बोलने व जीने के अभ्यास होते हैं, वैसा ही हमारा जीवन हो जाता है। एक योग के प्रतिदिन के अभ्यास से हमारे जीवन के सभी अभ्यास श्रेष्ठ, परिष्कृत व दिव्य हो जाते हैं। अत नियमित योगाभ्यास ही एक स्वस्थ, समृद्ध, सफल व सुखी आदर्श जीवन का आधार है। जीवन को दो शब्दों में कहें तो है- दृष्टि व आचरण। योगी की दृष्टि भी बहुत ऊँची, शुद्ध, सात्विक व श्रेष्ठ होती है तथा योगी का आचरण भी शुद्ध, सात्विक, पवित्र व श्रेष्ठ होता है। दृष्टि व आचरण की शुद्धता, श्रेष्ठता, पवित्रता व दिव्यता ही जीवन का अन्तिम लक्ष्य है।
योग का शरीर, मन व आत्मा पर प्रभाव
योग का अर्थ है अपनी चेतना (अस्तित्व) का बोध ः अपने अन्दर निहित शक्तियों को विकसित करके परम चैतन्य आत्मा का साक्षात्कार एवं पूर्ण आनन्द की प्राप्ति। इस यौगिक प्रक्रिया में विविध प्रकार की क्रियाओं का विधान भारतीय ऋषि-मुनियों ने किया है। यहाँ हम मुख्य रूप से अष्टांग योग (यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि) के अन्तर्गत वर्णित आसन, प्राणायाम एवं ध्यानादि की व्याख्या करेंगे और उसी के सहयोगी हठयोग के षट्कर्म आदि का भी वर्णन यहाँ आपको उपलब्ध होगा। इन सब क्रियाओं से हमारी सुप्त चेतना-शक्ति का विकास होता है। योग से सुप्त (डेड) तन्तुओं का पुनर्जागरण होता है एवं नये तन्तुओं, कोशिकाओं (सेल्स) का निर्माण होता है। योग की सूक्ष्म क्रियाओं द्वारा हमारे सूक्ष्म स्नायुतत्र को चुस्त किया जाता है, जिससे उनमें ठीक प्रकार से रक्त-संचार होता है और नई शक्ति का विकास होने लगता है। योग से रक्त-संचार पूर्णरूपेण सम्यक् रीति से होने लगता है। शरीरविज्ञान का यह सिद्धान्त है कि शरीर के संकोचन एवं प्रसारण होने से उनकी शक्ति का विकास होता है तथा रोगों की निवृत्ति होती है।
योगासनों से यह प्रक्रिया सहज ही हो जाती है। आसन एवं प्राणायामों के द्वारा शरीर की ग्रन्थियों एवं मांसपेशियों में कर्षण-विकर्षण, आकुञ्चन-प्रसारण तथा शिथिलीकरण की क्रियाओं द्वारा उनका आरोग्य बढ़ता है। रक्त को वहन करने वाली धमनियाँ एवं शिराएँ भी स्वस्थ हो जाती हैं। अत आसन एवं अन्य यौगिक क्रियाओं से पेक्रियाज एक्टिव होकर इन्स्युलिन ठीक मात्रा में बनने लगता है, जिससे डायबिटीज आदि रोग दूर होते हैं। पाचनतत्र की स्वस्थता पर पूरे शरीर की स्वस्थता निर्भर करती है। सभी बीमारियों का मूल कारण पाचनतत्र की अस्वस्थता है। यहाँ तक कि हृदयरोग (हार्ट-डिजीज) जैसी भयंकर बीमारी का कारण भी पाचनतत्र का अस्वस्थ होना पाया गया है। योग से पाचनतत्र पूर्ण रूप से स्वस्थ हो जाता है, जिससे सम्पूर्ण शरीर स्वस्थ, हल्का एवं स्फूर्तियुक्त बन जाता है। योग से हृदयरोग जैसी भयंकर बीमारी से भी छुटकारा पाया जा सकता है। फेफड़ों में पूर्ण स्वस्थ वायु का प्रवेश होता है, जिससे फेफड़े स्वस्थ होते हैं तथा दमा, श्वास, एलर्जी आदि रोगों से छुटकारा मिलता है। जब फेफड़ों में स्वस्थ वायु जाती है, तब उससे हृदय को भी बल मिलता है। यौगिक क्रियाओं से मेद का पाचन होकर शरीर का भार कम होता है तथा शरीर स्वस्थ, सुडौल एवं सुन्दर बनता है। इतना ही नहीं, इस स्थूल शरीर के साथ-साथ योग सूक्ष्म शरीर एवं मन के लिये भी अनिवार्य है। योग से इन्द्रियों एवं मन का निग्रह होता है, यम-नियमादि अष्टांग योग के अभ्यास से साधक असत् अविद्या के तमस् से हटकर अपने दिव्य स्वरूप ज्योतिर्मय, आनन्दमय, शान्तिमय, परम चैतन्य आत्मा एवं परमात्मा तक पहुँचने में समर्थ हो जाता है।
‘तदा द्रष्टुः स्वरूपे।़वस्थानम्’- (योगसूत्र-1.3) इस प्रकार हम योगपथ का अवलम्बन लेकर शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक उन्नति को प्राप्त करते हुए अपने लक्ष्य ईश्वर-साक्षात्कार- पूर्णानन्द की अनुभूति अधिगत कर लेते हैं।
योगी के जीवन की सबसे बड़ी प्रेरणा
- हर दिन प्रभात ब्राह्ममुहूर्त में उठते ही ये विचार व चिंतन करें कि मैं मूलत ईश्वर की संतान, ऋषि-ऋषिकाओं, वीर-वीरांगनाओं की संतान या भारत माता की संतान हूँ। मेरा ज्ञान, जीवन, वाणी, व्यवहार व आचरण भगवान्, ऋषियों व भारत माता की संतान के अनुरूप ही होगा। मैं कुछ भी ऐसा नहीं सोचूँगा व करुँगा जो ईश्वर की संतान या ऋषियों की संतान को शोभा नहीं देता। मैं भारत माता, ऋषियों व भगवान् का प्रतिनिधि, प्रतिरूप या उनका मूर्त्त रूप हूँ।
मैं ब्रह्मरूप हूँ। मैं स्वयं एक ऋषि-ऋषिका, वीर-वीरांगना हूँ। मैं भारत हूँ, मुझसे भारत है। मैं इसी माइंड सैट, उच्च चेतना, दिव्य या भागवत चेतना के अनुरूप ही अपने जीवन में समस्त आचरण व्यवहार करुँगा। भीतर से पूर्ण शान्त, बाहर से पूर्ण क्रियाशील, भीतर की पूर्णता में जीते हुए बाहर से भगवान् का दिव्य समर्थ, आदर्श यंत्र बनकर हमें जीवन को जीना है।
- योग-यज्ञ, योग-कर्मयोग, पुरुषार्थ व परमार्थ ही जीवन का सार है। एक क्षण के लिए भी अशुभ का स्वागत नहीं करना। मैत्री, करुणा, मुदिता व अशुभ के प्रति उपेक्षा भाव से सदा प्रसन्नचित्त रहना है। न तो मुझे साधनहीन दुःखी दरिद्र बनना है, न ही साधन सम्पन्न दुःखी अप्रसन्न रहना है। मैं समष्टि के प्रति पूर्ण कृतज्ञ रहता हुआ स्वयं योगी बनूँगा तथा सबको योगी, निरोगी, उपयोगी बनाने हेतु पूर्ण पुरुषार्थ व सेवा करुँगा। जब एक-एक व्यक्ति समर्थ, चरित्रवान्, महान् व आध्यात्मिक बनेगा, तभी पूरा भारत समर्थ, चरित्रवान्, महान् व आध्यात्मिक बनेगा।
हमें मजहबी राष्ट्र नहीं अपितु आध्यात्मिक भारत व आध्यात्मिक विश्व का निर्माण करना है। व्यष्टि व समष्टि की मुक्ति ही हमारा अन्तिम लक्ष्य होना चाहिए।
आध्यात्मिकता का यथार्थ स्वरूप
ध्यात्मिकता के नाम पर अनेकों भ्रमपूर्ण भ्रान्तियाँ प्रचलित हैं, जैसे- आध्यात्मिक व्यक्ति सदा ध्यान में बैठा रहता है, सदा जप करता रहता है, कुछ काम नहीं करता, सात्त्विक समृद्धि या ऐश्वर्य वृद्धि हेतु कुछ काम नहीं करता इत्यादि प्रचलित भ्रमपूर्ण भ्रान्तियों के निवारण हेतु कुछ सूत्रों की चर्चा यहाँ कर रहे हैं। आध्यात्मिकता का पहला सूत्र है- सात्त्विक सफलता एवं सात्त्विक संकल्प।
- सात्त्विक सफलता-
सात्त्विक सफलता का मूल है योग एवं कर्मयोग। सामान्य चेतना के लोग सत्ता, सम्पत्ति, सम्मान, भौतिक सुख, सफलता एवं भौतिक समृद्धि आदि के लिए प्रयत्न करते दिखते हैं और आंशिक रूप से सफल होते हुए भी दिखते हैं। यह भौतिकवादी चिन्तन है। सात्त्विक आत्मायें भगवान् की प्रेरणा से, भगवान् की प्रसन्नता के लिए, भगवान् को ही सब ज्ञान, शक्ति एवं ऐश्वर्य का मूल स्रोत स्वीकार करके निष्काम भाव से निमित्त मात्र बनकर कर्मयोग करते हैं और परिणामत सत्ता, सम्पत्ति, सम्मान, समृद्धि एवं सफलता आदि उपरोक्त सभी वस्तु उनको भी प्रचुर मात्रा में भगवान् की विविध विभूति या दिव्य ऐश्वर्य व सात्त्विक सामर्थ्य के रूप में उपलब्ध होता है। पतंजलि योगपीठ का सात्त्विक सामर्थ्य एवं सफलता इसका मूर्त उदाहरण है। योगियों का यह समस्त सामर्थ्य एवं ऐश्वर्य मानवता की सेवा के लिए प्रयुक्त होती है। यही सच्चा अध्यात्मवाद है।
- सात्त्विक संकल्प-
सामान्य चेतना के व्यक्ति भगवान् के विधान को न समझ करके अपनी योजना बनाकर काम करते हैं और उन्हें क्रियान्वित करने के लिए कर्म करते हुए दिखते हैं। मानवीय अल्पविवेक और दोषपूर्ण संकल्प होने के कारण यह मानवीय पुरुषार्थ कभी सुखदायी और कभी दुःखदायी भी हो जाते हैं। इसके विपरीत उच्चचेतना से युक्त संन्यासी, योगी, जो भगवान् के संकल्प से युक्त होकर भगवान् की दिव्य योजना के तहत भगवान् के दिव्य संकल्पों को भी मूर्त्त रूप देता है और इस समष्टि को सर्वविध सात्त्विक सुख एवं समृद्धि उपलब्ध करवाता है। वह धरती पर शाश्वत सत्ता का मूर्त्त रूप होकर विचरण करता है। पतंजलि योगपीठ के साथ जुड़ी लाखों आत्माएँ इसका मूर्त्त उदाहरण हैं।
- दैवी एवं आसुरी सम्पदा-
गीता के 16वें अध्याय में भगवान् श्रीकृष्ण दैवी सम्पदा के रूप में 26 गुणों का वर्णन करते हैं- निर्भयता, मन की निर्मलता, ज्ञान हेतु ध्यानयोग में दृढ़ स्थिति, दान, दम, यज्ञ, स्वाध्याय, तप, सरलता, अहिंसा, सत्य, अक्रोध, अहंकार व स्वार्थ का त्याग, शान्ति, उदारभाव, दया, लालच न रखना, कोमलता, अचापल्य, तेजस्विता, क्षमा, धृति, शुद्धता, द्रोह न करना और घमण्ड न करना यह दैवी सम्पदा है। इसी प्रकार इन गुणों से विपरीत आचरण व भाव ही आसुरी सम्पदा के अन्तर्गत आ जाता है। इस आसुरी सम्पदा का फल बताते हुए भगवान् श्रीकृष्ण करते हैं-
अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिताः। मामात्मपरदेहेषु प्रद्विषन्तो।़भ्यसूयकाः।।
- भगवान् का दर्शन एवं पूजा-
संसार का प्रत्येक व्यक्ति अपनी समझ के अनुसार किसी न किसी रूप में भगवान् का दर्शन व पूजन करना चाहता है। वेद एवं गीता में भगवान् का यही स्वरूप बताया है कि हम भगवान् को विश्वमय एवं विश्वातीत रूप में जानें। ईशा वास्यमिदं सर्वम्। सर्वं खलु इदं ब्रह्म। वासुदेव सर्वम्। यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति। इत्यादि। यहाँ भगवान् के दर्शन का अभिप्राय है- हम सब सम्बन्धों एवं सब प्राणियों में भगवान् के इस स्वरूप को देखने का बार-बार अभ्यास करें तथा इस जगत् से अतीत भी उसी की सत्ता का अनुभव करें, यही भगवान् का दर्शन है तथा अपनी अन्तरात्मा में जो भगवान् प्रेरणा देता है उसी के अनुरूप कर्म और आचरण करना यही भगवान् की पूजा है। स्वकर्मणा तमभ्यर्च।
- संगठन का ध्येय-
संसार में सामाजिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, आर्थिक एवं राजनैतिक रूप से जितने भी संगठन काम कर रहे हैं, उनके द्वारा यद्यपि संसार में बहुत कुछ शुभ भी घटित हो रहा है, लेकिन इन संगठनों में कहीं-कहीं आंशिक रूप से और कहीं व्यापक रूप से एक बहुत बड़ा दोष भी दिखाई देता है, वह है कि हम ही सर्वश्रेष्ठ हैं। हमारा विचार, विचारधारा एवं हमारे सिद्धान्त से ही इस दुनिया का कल्याण हो सकता है। इस कारण से पूरी दुनियाँ में भयंकर संघर्ष, खून-खराबा एवं युद्ध जैसी स्थिति भी बन जाती है। वेद एवं ऋषियों का सिद्धान्त ‘मैं ही सर्वश्रेष्ठ हूँ’ यह नहीं है, अपितु उनका सिद्धान्त है कि सभी सर्वश्रेष्ठ हैं एवं सभी एक ही ईश्वर की सन्तान हैं और यह सारा साम्राज्य भगवान् का ही है। राजनैतिक एवं साम्प्रदायिक रूप से देश व दुनिया में जितनी भी सीमा बनाई गयी हैं, विरोध खड़े कर दिये गये हैं, यह संसार के स्वार्थी व लालची लोगों का एक अविवेकपूर्ण कृत्य ही है।
हम अपने संगठन को इन दोषों से मुक्त एवं दिव्य संगठन के रूप में देखना चाहते हैं। हमारा मुख्य रूप से एक ही लक्ष्य है कि मनुष्य मात्र सभी क्षेत्रों में यथार्थ ज्ञान एवं श्रेष्ठ आचरण से युक्त हो मिथ्याज्ञान एवं तज्जन्य, दोषपूर्ण प्रवृत्तियों एवं दोषपूर्ण आचरण से मुक्त होकर दिव्य जीवन जिएँ। अन्तत आचरण की दिव्यता व पवित्रता ही किसी भी व्यक्ति का, किसी भी संगठन का, किसी भी समाज का या राष्ट्र का सबसे बड़ा ध्येय होना चाहिए।
मुक्ति का व्यावहारिक स्वरूप, दर्शन व सिद्धान्त
मुक्ति शब्द ‘मुच्लृ-विमोचने’ धातु से निष्पन्न होता है, जिसका अर्थ है विशेष रूप से बन्धन से मुक्त होना। मुख्य रूप से तीन प्रकार के बन्धनों से व्यक्ति बंधा हुआ है, वे हैं अज्ञान, अश्रद्धा एवं अकर्मण्यता। ईश्वर के सर्वव्यापक होते हुए भी उससे जो दूरी अनुभव होती है। वह किसी स्थान की दूरी नहीं है अपितु अज्ञान, अश्रद्धा व अकर्मण्यता के कारण ही यह दूरी की अनुभूति होती है। मुक्ति के लिए महर्षि दयानन्द ने शुद्ध ज्ञान, शुद्ध कर्म व शुद्ध उपासना को साधन बताया है। गीता में ज्ञानयोग, कर्मयोग व भक्तियोग के नाम से इसी बात का वर्णन किया है।
ज्ञान योग- ज्ञान-विज्ञान, अनुसन्धान, तत्त्वज्ञान एवं विविध कौशल से युक्त होना ज्ञानयोग है। कुशलता आदि से युक्त होना ही ज्ञानयोग है। ज्ञान का अन्तिम परिणाम, लक्ष्य या गन्तव्य है कि हमें यह समझ में आ जाये कि सब कुछ का मूल आधार भगवान् है। जब यह ज्ञान हमारे भीतर पूर्णत प्रतिष्ठित हो जाता है। सब ज्ञान, शक्ति, सामर्थ्य, समृद्धि, सुख, शान्ति व आनन्द को मूल आधार भगवान् ही है। यद्यपि परमात्मा, आत्मा व प्रकृति ये तीन अनादि व अनन्त सत्तायें हैं लेकिन इन तीन के भी मूल में एक सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सृष्टि का कर्ता, नियन्ता व संहर्ता तत्त्व ओंकार ब्रह्म है। जब ऐसा ज्ञान हो जाता है तो हम सारे संशय भ्रम समस्त अज्ञान व अज्ञान जनित दोषों, दुःखों व अशुभ से पूर्णत मुक्त हो जाते हैं यही ज्ञान योग है।
कर्म योग- जब हमें यह बोध हो गया कि समस्त ज्ञानशक्ति एवं ऐश्वर्य का मूल आधार भगवान् है तो हम निमित्त मात्र होकर, भगवान् के यत्र बनकर वेदानुकूल, शास्त्रानुकूल, ऋषियों के अनुकूल व आत्मानुकूल आचरण करने लगते हैं इसी को रीतिपूर्वक धर्मानुसार यथायोग्य, न्यायपूर्ण व विवेकपूर्ण व्यवहार भी कहते हैं। कर्म, पुरुषार्थ, निष्काम सेवा, दिव्य प्रवृत्ति आदि में उत्साह, पराक्रम, शौर्य व स्वाभिमान आदि से युक्त होकर स्वधर्म का दिव्यतापूर्वक निर्वहन करना या दिव्य कर्म करना यही कर्मयोग है।
भक्ति योग- जब हृदय श्रद्धा, भक्ति, प्रेम, करुणा, वात्सल्य व कृतज्ञता आदि समस्त दिव्य भावों से युक्त होता है तथा अकाम, अचाह निष्काम व पूर्णकाम होकर अनासक्त भाव से हम जो भी सेवा, कर्म, तप, पुरुषार्थ या दिव्य प्रवृत्ति करते हैं यह सब भक्तियोग ही है। यह भक्तिभाव के स्तर भी तथा आचरण या व्यवहार के स्तर पर भी भगवान् के प्रति पूर्ण समर्पण है। नवधाभक्ति, ईश्वर-प्रणिधान या मुमुक्षत्व शब्द भेद से एक ही तात्पर्य की अभिव्यक्ति है कि भगवान् के प्रति पूर्णश्रद्धा, पूर्णविश्वास एवं पूर्णप्रेम की पराकाष्ठा या ब्रह्म के साथ पूर्ण एकत्व ही भक्तियोग है।
मुक्ति के उपाय- दिव्य जीवन जीने के तीन सोपान, साधन या उपाय हैं। एक आसन व व्यायाम से शरीर की शुद्धि तथा प्राणायाम व ध्यान से अन्तकरण या चित्त की शुद्धि एवं अष्टांग योग के अर्न्तगत यम-नियमों से आचरण की शुद्धि। जब एक मनुष्य की ये तीन शुद्धि हो जाती हैं तो वह मनुष्य देवता, ऋषि, महामानव या महापुरुष बन जाता है। उसका जीवन दिव्य जीवन बन जाता है अर्थात् शारीरिक दुःख, मानसिक दुःख, तनाव, उदासी, परेशानी आदि तथा जीवन में आचरण स्वभाव आदि के दोष स्वरूप दूसरों से मिलने वाले समस्त दुःखों का नितान्त अभाव हो जाता है। सभी प्रकार के अज्ञान, अभाव, दुःख शोक आदि से मुक्त जीवन ही वास्तव में जीवनमुक्ति है, यही मुक्ति का मूल सिद्धान्त है। जो व्यक्ति इस जीवन को फूलों की तरह खिलता हुआ, हँसता हुआ, सुगन्धित (अपने सुकर्मो की गन्ध से) जीवन जीता है, वही जीवनमुक्त योगी है और इसी में जीवनमुक्त योगी के लक्षण हैं तथा वह निश्चित रूप से मरने के बाद भी मुक्त ही होता है, किन्तु जो यहाँ दुःख से मुक्त नहीं हो पाया, वह मृत्यु के बाद मोक्ष को प्राप्त कर पायेगा, यह कहा नहीं जा सकता।
आसन व व्यायाम-
चिकित्सा विज्ञान के अब तक के अनुसन्धान इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि कम से कम प्रत्येक स्वस्थ व्यक्ति को भी प्रतिदिन 20 से 30 मिनट आसन व व्यायाम अवश्य करना चाहिये, जिससे कि रोग, बुढ़ापा, दुःख तनाव व तनावजनित रोगादि से सर्वथा मुक्त रह सके।
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु। युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।। (गीता- 6.7)
अर्थात् जिसका आहार, व्यवहार, समस्त चेष्टाएं या क्रियाएं, निद्रा व जागरण सब युक्त हैं, उचित हैं, सन्तुलित हैं, उसके लिए यह योग दुःख का नाशक बन जाता है। कोई कितना ही बड़ा महापुरुष, योगी, तपस्वी क्यों न हो यदि वह आसन, व्यायाम या आहार आदि की अवहेलना करेगा तो शारीरिक कष्टों से मुक्त हो ही नहीं सकता, इस यथार्थ को झुठलाया नहीं जा सकता। अनेक महापुरुषों का जीवन इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है, जिन्हें आध्यात्मिक दृष्टि से बहुत ऊँचा जीवन जीते हुए भी आसन, व्यायाम आदि के अभाव में सामान्य रोगों से लेकर कैंसर आदि बड़े रोगों से पीड़ित होना पड़ा।
प्राणायामपूर्वक ध्यान-
प्रतिदिन कम से कम आधा घण्टा प्राणायामपूर्वक ध्यान करने से अन्तकरण की शुद्धि होकर समाधि की प्राप्ति होती है। प्राणायाम का फल बताते हुए योगदर्शन में लिखा है-
तत क्षीयते प्रकाशावरणम्’ (योगसूत्र-2.52)
‘प्राणो ब्रह्मेति’ (उपनिषद) अर्थात् जो संस्कार हमने क्रियायोग से तनु (क्षीण) किये थे, वे ध्यान से समूल नष्ट हो जाते हैं। ‘योगाङ्गानुष्ठानादशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः’ (योगसूत्र-2.28) अर्थात् प्राणायामपूर्वक ध्यान से चित्त की अशुद्धि का क्षय होने पर ज्ञान का प्रकाश बढ़ता ही रहता है जब तक कि पूर्ण विवेक प्राप्त न हो जाये।
प्राणायाम व ध्यान के अभ्यास के बिना किसी को भी इन्द्रिय व अन्तकरण की शुद्धि, मन पर विजय, चित्तवृत्तियों का निरोध, आत्मबोध व परमात्म तत्त्व का बोध हो ही नहीं सकता।
अष्टांग योग के अन्तर्गत यम-नियमों का पालन-
यम-नियमों का पालन करने से आत्मिक शुद्धि होती है। शुद्ध आत्मा का अन्तिम सत्य है आचरण की पवित्रता। ‘आचारहीनं न पुनन्ति वेदाः’। (वसिष्ठस्मृति- 6.3) अर्थात् आचरण से ही व्यक्ति को तो वेद की ऋचाएं भी पवित्र नहीं कर पाती हैं। आचरण की पवित्रता ही मनुष्य जीवन का परम पुरुषार्थ है। ‘अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्त पुरुषार्थः’। आधिभौतिक, आधिदैविक व आध्यात्मिक तीन प्रकार के दुःखों का सर्वथा अभाव ही परम पुरुषार्थ है। ‘यत प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्’। स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानव।। (गीता-18.46) अर्थात् जिससे सभी प्राणी जन्म लेते हैं, जिससे यह सारा जगत् व्याप्त है, उस परमात्मा की अपने कर्म से पूजा करके मनुष्य सिद्धि को प्राप्त कर लेता है।
‘पवित्रं मे शतायुषा’ (वेद) अर्थात् मैं पवित्रता पूर्वक जीते हुए सौ वर्ष की आयु को प्राप्त करूँ।
स्वे-स्वे कर्मण्यभिरत संसिद्धिं लभते नर। स्वकर्मनिरत सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु।।
(गीता 18.45)
अपने-अपने स्वकर्म में जो व्यक्ति लगा रहता है वह सिद्धि को प्राप्त कर लेता है।
अत योगी आसन, व्यायाम, प्राणायाम, ध्यान व यम-नियमों का सतत पालन करते हुए अपने आचरण की दिव्यता व पवित्रता से आनन्दित रहता हुआ सर्वजगतहितकारी बन जाता है।
यम-नियमों के पालन के बिना योगी होना तो बहुत ऊँची व बहुत दूर की बात है, वह एक अच्छा इन्सान, अच्छा माता-पिता, गुरु, शिष्य, अच्छा किसान, व्यापारी, नेता, अभिनेता व एक आदर्श नागरिक भी नहीं बन सकता है। यदि कोई व्यक्ति यम-नियमों के पालन के बिना अध्यात्म की बात करता है तो वह कोरा पाखण्ड ही है; क्योंकि पूरा यम-नियम ही अध्यात्म की आधारशिला है। अध्यात्म के मूल सिद्धान्त, रीति, नीति व अध्यात्म का पूरा दर्शन यम-नियमों पर ही टिका हुआ है।
स्वस्थ व्यक्ति की दिनचर्या
सुस्वस्थ ही सम्पूर्ण सुखों का आधार है। स्वास्थ्य है तो जहान है, नहीं तो श्मशान है। स्वस्थ कौन है? आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रन्थ सुश्रुतसंहिता में महर्षि सुश्रुत लिखते हैं-
समदोष समाग्निश्च समधातुमलक्रिय। प्रसन्नात्मेन्द्रियमनाः स्वस्थ इत्यभिधीयते।।
(सुश्रुत. सूत्र.- 15.41)
जिसके तीनों दोष वात, पित्त एवं कफ सम हों, जठराग्नि सम (न अति मन्द, न अति तीव्र)हो, शरीर को धारण करने वाली सप्त धातुएँ रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा तथा वीर्य उचित अनुपात में हों, मल-मूत्र की क्रिया सम्यक् प्रकार से होती हो और दस इन्द्रियाँ (कान, नाक, आँख, त्वचा, रसना, गुदा, उपस्थ, हाथ, पैर एवं जिह्वा), मन एवं इनका स्वामी आत्मा भी प्रसन्न हो तो ऐसे व्यक्ति को स्वस्थ कहा जाता है। महर्षि सुश्रुत ने ‘स्वस्थ’ शब्द की बहुत ही व्यापक एवं वैज्ञानिक परिभाषा की है।
महर्षि चरक के अनुसार इस स्वस्थता की प्राप्ति हेतु आहार, निद्रा एवं ब्रह्मचर्य- ये तीन (स्तम्भ) खम्भे हैं।
त्रय उपस्तम्भा इति- आहार स्वप्नो (निद्रा) ब्रह्मचर्यमिति। (चरक, सूत्र.- 11.34)
इन्हीं तीन आधारों पर यह टिका हुआ है। गीता में योगेश्वर श्रीकृष्ण भी कहते हैं ः
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु। युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा।।
(गीता 6.17)
जिसके आहार, विहार, विचार एवं व्यवहार सन्तुलित तथा संयमित हैं, जिसके कार्यों में दिव्यता, मन में सदा पवित्रता एवं शुभ के प्रति अभीप्सा है, जिसका शयन एवं जागरण नियमित है, वही सच्चा योगी है। इन तीनों स्तम्भों एवं अन्य नियमों के विषय में यहाँ संक्षिप्त रूप से विचार प्रस्तुत है।
- आहार
यथा च खाद्यते ह्यन्नं तथा सम्पद्यते मन। यथा च पीयते वारि तथा निर्गद्यते वच।।
आहार से व्यक्ति के शरीर का निर्माण होता है। आहार का शरीर पर ही नहीं, मन पर भी पूरा प्रभाव पड़ता है-‘जैसा अन्न, वैसा मन’।
आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धि सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृति स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्ष।।
(छान्दोग्योपनिषद्- 7.26.2)
आहार के विषय में आयुर्वेद का एक दृष्टान्त बहुत ही सुन्दर है। पूछा, ‘को।़रुक्, को।़रुक्, को।़रुक्?’ कौन रोगी नहीं अर्थात् स्वस्थ कौन है? उत्तर दिया, ‘हितभुक्, मितभुक्, ऋतुभुक्’। हितकारी, उचित मात्रा एवं ऋतु के अनुकूल भोजन करने वाला स्वस्थ है। अपनी प्रकृति (वात, पित्त, कफ) को जानकर उसके अनुसार भोजन लें। यदि वात प्रकृति है, शरीर में वायु विकार होते हैं तो वायुकारक एवं खट्टा भोजन का त्याग कर देना चाहिए। छोटी पिप्पली, सोंठ, अदरक, लहसुन, घृतकुमारी, निर्गुण्डी, परिजात आदि का प्रयोग करते रहना चाहिए। पित्त प्रकृति वाले को गर्म, तले हुए पदार्थ नहीं लेने चाहिए। घीया, खीरा, ककड़ी, अंकुरित अन्न, भीगा हुआ मुनक्का एवं अंजीर आदि तथा कच्चा भोजन लाभदायक होता है। कफ प्रकृति वाले को ठण्डी चीजें घी, दही, छाछ आदि का सेवन अति मात्रा में भी नहीं करना चाहिए। दूध में छोटी पिप्पली, हल्दी, आदि डालकर सेवन करना चाहिए। उचित मात्रा में भोजन लेना चाहिए। आमाशय का आधा भाग अन्न के लिये, चतुर्थांश पेय पदार्थों के लिये रखते हुए शेष भाग वायु के लिए छोड़ना उचित है। ऋतु के अनुसार पदार्थों का मेल करके सेवन करने से रोग पास में नहीं आते। भोजन का समय निश्चित होना चाहिए। असमय पर किया हुआ भोजन अपचन करके रोग उत्पन्न करता है। प्रातकाल फलों या सब्जियों का रस अथवा अंकुरित या दलिया आदि अल्पाहार, दोपहर संतुलित, सात्त्विक व पौष्टिक भोजन तथा सायंकाल 8 बजे से पहले हल्का भोजन लेना चाहिए। भोजन करते समय वार्तालाप करने से भोजन अच्छी तरह से चबाया नहीं जाता तथा अधिक भी खा लिया जाता है। एक ग्रास को बत्तीस बार या कम से कम बीस बार तो चबाना ही चाहिए। चबाकर भोजन करने से हिंसा भाव की भी निवृत्ति होती है; क्योंकि हम सब जानते हैं कि जब क्रोध आता है, तब व्यक्ति दाँत पीसने लगता है, अर्थात् क्रोध का उद्गम-स्थान दाँत भी है। यदि हम हिंसाभाव को समाप्त करना चाहते हैं तो हमें चबाने पर विशेष ध्यान देना चाहिए। आप स्वयं इसका अनुभव करके देखेंगे तो इसके परिणाम से परिचित होंगे। भोजन के बीच में पानी नहीं पीना चाहिए। यदि भोजन रूक्ष हो तो थोड़ी मात्रा में पी सकते हैं। भोजन के बाद दो-तीन घूँट से ज्यादा पानी नहीं पीयें। यदि छाछ हो तो जरूर पीना चाहिए। संस्कृत में एक श्लोक आता है-
भोजनान्ते पिबेत् तक्रं दिनान्ते च पिबेत् पय। निशान्ते च पिबेद्वारि किं वैद्येन प्रयोजनम्।।
जिसका तात्पर्य है – ‘जो प्रातकाल उठकर जलपान करता है, रात्रि को भोजनोपरान्त दुग्धपान तथा मध्याह्न में भोजन के बाद छाछ पीता है, उसे वैद्य की आवश्यकता नहीं होती’। अर्थात् वह व्यक्ति नीरोग रहता है। इसके साथ-साथ हमारा भोजन पूर्णरूप से हमारे लिए उपयुक्त हो। भोजन में खनिज, लवण एवं विटामिन्स भी भरपूर होने चाहिए। भोजन में मांस, अण्डे आदि का प्रयोग न हो। भगवान् ने हमें शाकाहारी बनाया है। जब हम रोटी खाकर जी सकते हैं, जिसमें कोई हिंसा नहीं, तो किसी प्राणी की हत्या करके उसके प्रिय जीवन को समाप्त करके जीने की क्या आवश्यकता है? इस जीने से तो मर जाना बेहतर है। मांस खाने से दया, करुणा, सहानुभूति, प्रेम, अपनत्व एवं श्रद्धाभक्ति आदि मानवीय गुणों का अन्त हो जाता है। मानव दानव होकर विचरता है। मांसाहारी का पेट एक मुर्दाघर या कब्रिस्तान (श्मशान घाट) की तरह होता है।
- निद्रा-
निद्रा अपने-आप में एक सुखद अनुभूति व भगवान् का वरदान जैसी है। यदि व्यक्ति को नींद न आये तो पागल भी हो सकता है। निद्रा देखने में तो कुछ नहीं लगती, परन्तु जिनको नींद नहीं आती, वे ही जानते हैं, इसका क्या महत्त्व है। एक स्वस्थ व्यक्ति के लिए 6 घण्टे की नींद पर्याप्त है। बालक एवं वृद्ध के लिए आठ घण्टे सोना उचित है। सायंकाल शीघ्र सोना एवं प्रातकाल शीघ्र उठना व्यक्ति के जीवन को उन्नत बनाता है।
भगवान् ने प्रकृति को कुछ ऐसे ही नियमों में बाँधा है कि सभी मनुष्येतर प्राणी पशु, पक्षी सायंकाल होने पर अपने-अपने ठिकानों पर विश्राम करने लगते हैं। उल्लू, चमगादड़ आदि को छोड़कर सभी पक्षी जैसे ही रात्रि का आगमन होता है, प्रभु का स्मरण करके अपने कार्यों में लग जाते हैं। मुर्गा दूसरों को ब्रह्म मुहूर्त में न सोने का सन्देश देता है। चिड़िया सुन्दर गीतों से भगवान् के नाम का स्तवन करती हुई नजर आती है; परन्तु यह अभागा मनुष्य उल्लू की तरह रात भर जागता है और इस का आनन्द लिए बिना ही पड़ा रहता है और अन्त में रोगी हो जाता है। हम भी इन मूक प्राणियों से प्रेरणा प्राप्त करें। जल्दी सोना एवं जल्दी उठना व्यक्ति को स्वस्थ एवं महान् बनाता है।
- ब्रह्मचर्य- अपनी इन्द्रियों एवं मन को विषयों से हटाकर ईश्वर एवं परोपकार में लगाने का नाम ब्रह्मचर्य है। केवल उपस्थ इन्द्रिय का संयम-मात्र ही ब्रह्मचर्य नहीं है। इन्द्रियों एवं मन की शक्तियों का रूपान्तरण कर उनको आत्ममुखी कर ब्रह्म की प्राप्ति करना ब्रह्मचर्य लक्ष्य है।
भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्तास्तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः।
कालो न यातो वयमेव याताः तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः।। (वैराग्यशतक- 12)
भोग को हम नहीं भोगते, भोग ही हमें भोग लेते हैं। (जैसे- मोटापा, मधुमेह, कोलेस्ट्रोल व उच्चरक्तचाप आदि होने पर भोजन को हम नहीं खाते अपितु असंयत भोजन हमें खाने लगता है।) तप नहीं तपा जाता, हम स्वयं तप जाते हैं। काल का अन्त नहीं होता, हम ही काल में समा जाते हैं। तृष्णाएँ जीर्ण नहीं होती, हम स्वयं जीर्ण हो जाते हैं। भोग भोगने से तृप्ति कदापि नहीं होती, अपितु इच्छाएँ बलवती होती चली जाती हैं। महर्षि मनु कहते हैं-
न जातु काम कामानामुपभोगेन शाम्यति। हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्द्धते।।
(मनुस्मृति- 2.94)
काम, काम के उपभोग से शान्त नहीं होता, अपितु अग्नि में जैसे घृत डालने से अग्नि तीव्र होती है, वैसे ही भोगों को भोगती हुई वासनाएँ और अधिक बढ़ जाती हैं। महर्षि कपिल भी सांख्यदर्शन में कहते हैं ः
न भोगाद् रागशान्तिर्मुनिवत्। (सांख्यसूत्र- 4.27)
सारी सृष्टि मर्यादाओं के पालन का सतत उपदेश दे रही है। हम भी इस मर्यादित सृष्टि के सहयोगी बनें।
- व्यायाम- इस शरीर को चलाने के लिए जैसे आहार की आवश्यकता है, वैसे ही आसन-प्राणायाम एवं व्यायाम आदि की भी परमावश्यकता है। बिना व्यायाम के शरीर अस्वस्थ तथा ओज-कान्तिहीन हो जाता है। जबकि नियमित रूप से व्यायाम करने से दुर्बल, रोगी एवं कुरूप व्यक्ति भी बलवान्, स्वस्थ एवं सुन्दर बन जाता है। हृदयरोग, मधुमेह, मोटापा, वातरोग, बवासीर, गैस, रक्तचाप, मानसिक तनाव आदि का भी मुख्य कारण शारीरिक श्रम का अभाव है। यदि नित्य प्रति योगाभ्यास किया जाये तो ये रोग कभी नहीं हो सकते। व्यायाम के भी कई प्रकार हैं। इन सबमें आसन-प्राणायाम सर्वोत्तम हैं। दूसरे व्यायामों से शारीरिक परिश्रम तो होता है, परन्तु मन में एकाग्रता एवं शान्ति नहीं आती। भारी व्यायाम करने से मांसपेशियाँ (Muscles) का ही अधिक व्यायाम होता है। इसीलिए भारी व्यायाम से मांसपेशियाँ इतनी सख्त हो जाती हैं कि उनमें धीरे-धीरे रक्त-संचार होना भी कम हो जाता है तथा दर्द होना प्रारम्भ हो जाता है। जबकि आसन-प्राणायाम से पूर्ण आरोग्य लाभ होता है तथा किसी भी प्रकार की कोई हानि नहीं होती तथा शरीर के साथ मन में एकाग्रता एवं शांति का विकास होता है।
- स्नान- आसन आदि के पश्चात् शरीर का तापमान सामान्य होने पर स्नान करना चाहिए। स्नान से शरीर में ताजगी आती है, अनावश्यक गर्मी शान्त होकर शरीर शुद्ध एवं हल्का बन जाता है।
अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति मन सत्येन शुध्यति। विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति।।
(मनुस्मृति- 5.109)
जल से शरीर शुद्ध होता है। सत्य से मन की शुद्धि होती है। विद्या एवं तप के अनुष्ठान से आत्मा तथा ज्ञान से बुद्धि निर्मल बनती है। रोगी को छोड़कर सामान्य व्यक्ति को स्नान ठण्डे पानी से करना चाहिए। गर्म पानी से स्नान करने पर मन्दाग्नि एवं दृष्टि-दुर्बलता आदि रोग हो जाते हैं। असमय में ही बाल सफेद होने एवं गिरने लगते हैं। शरीर में अनावश्यक गर्मी बढ़कर धातुक्षीणता होती है। स्नान के पश्चात् शरीर को खादी के तौलिए से खूब रगड़ना चाहिए। इससे कान्ति बढ़ती है। यदि कब्ज है तो पेट को भी तौलिए से रगड़ना चाहिए। नदी, तालाब आदि में तैरकर स्नान करें तो सर्वोत्तम है।
6. ध्यान- शौच, स्नान, आसनादि नित्यकर्मों से निवृत्त होकर सुख, शान्ति एवं आनन्द की कामना रखनेवाले व्यक्ति प्रतिदिन कम से कम 15 मिनट से लेकर एक घण्टे तक भगवान् का ध्यान, उपासना अवश्य करें। प्रणव एवं गायत्री आदि मत्रों का दीर्घकाल तक श्रद्धापूर्वक किया हुआ जप परमशक्ति, शान्ति एवं आनन्ददायक होता है।